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धरती से

85 साल का धरती पुत्र

एक तरफ़ जहां विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध बलि चढ़ाई जा रही है तो दूसरी तरफ़ बिल्कुल ज़मीन से जुड़े ऐसे लोग हैं जो पेड़ बचा कर, पेड़ लगाकर इस धरती को बचाने में जुटे हैं। दुनिया कभी ऐसे लोगों को सनकी कहती है, कभी पागल कहती है लेकिन वो नहीं जानते कि वो ख़ुद ऐसे ही पागलों और सनकियों की वजह से ज़िंदा हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से हवा बची है, ज़मीन बची है, पानी बचा है।

1 करोड़ पेड़ लगाकर बचाई धरती

जेब में कुछ पौधों के बीच और साइकिल लेकर ये शख़्स निकल पड़ता है। सड़क के किनारे, पहाड़, नदी, तालाब, गांव, शहर जहां भी उसे खाली ज़मीन दिख जाती है वहां वो उन बीजों को रोपता जाता है। हर कुछ दिन बाद वो वहां लौट कर आता है, बीज से निकले पौधों को सहेजता है, सहारा देता है, सुरक्षा देता है।

कभी आंध्र प्रदेश और अब तेलंगाना के खम्मम ज़िले के रेड्डीपल्ली गांव के रहने वाले हैं दरिपल्ली रमैया। 80 साल से ज़्यादा की उम्र लेकिन ना थके हैं ना रूके हैं। अब तक वो रेड्डीपल्ली के अलावा आसपास के गांवों और खाली इलाक़ों में 1 करोड़ से ज़्यादा पौधे लगा चुके हैं। उनके गांव के आसपास का इलाक़ा अब घने छायादार पेड़ों और लाखों-लाख औषधीय और फूलों के पौधों से भर चुके हैं। उन्हें ख़ुद नहीं पता कि अब तक उन्होंने कितने पौधे लगा दिये हैं। ये पौधे आज पूरे इलाक़े का ऑक्सीजन सेंटर बन गए हैं। देश ही नहीं पूरी धरती को प्राणवायु दे रहे हैं।

मां से सीखा धरती से प्यार करना

ज़्यादातर बच्चों की तरह दरिपल्ली का भी जुड़ाव अपनी मां के साथ बहुत गहरा था। उनकी बातें दरिपल्ली गांठ बांध लिया करते थे। बचपन से ही उन्होंने देखा कि उनकी मां अलग-अलग तरह के पौधों और पेड़ों के बीच संभाल कर रखती हैं और फ़िर समय-समय पर उन बीजों को ज़मीन में रोप देती हैं। अपनी मां को कभी पौधा लगाते तो कभी पौधों की देखरेख करते देख दरिपल्ली का भी पेड़-पौधों से रिश्ता बनता चला गया। कुछ बड़े हुए तो देखा विकास के नाम पर पेड़ों को काटा जा रहा है। जहां पहले घने जंगल हुआ करते थे वो अब कंक्रीट के जंगल में बदल रहे हैं। ये स्थिति दरिपल्ली के लिए बहुत कष्टकारी साबित हुई। वो बेचैन रहने लगे। उनके अंदर सवालों का सैलाब घुमड़ने लगा। और इन सवालों का जवाब ख़ुद को उन्होंने एक ऐसे अभियान की शुरुआत कर के दिया जिसने एक वन क्रांति को जन्म दे दिया।

पागल से पद्मश्री तक का सफ़र

दरिपल्ली रेड्डी ने अपनी मां की तरह पेड़-पौधों के बीज जुटाने शुरू कर दिये। जब कुछ बीज इकट्ठे हो गए तो साइकिल उठाई और बीज लेकर चल पड़े। शुरुआत में उन्होंने अपने गांव में ही उन बीज़ों को रोपना शुरू किया। जहां-जहां उन्हें खाली जगह मिलती, वो बीज रोप देते। नीम, पीपल, बरगद, कदंब, बेल के साथ-साथ गुलाब, गुड़हल, पत्थरचट्टा समेत सैकड़ों प्रजाति के पौधे लगा कर गांव को हरा-भरा कर दिया। इसके बाद वो गांव के आसपास के इलाक़ों में पौधा लगाने लगे। उन्होंने इसमें अपनी पत्नी जनम्मा को भी जोड़ लिया। अपनी साइकिल पर आगे-पीछे वो कई पौधों को बांध लेते, बीज अपनी जेब या किसी थैले में रख कर वो निकल पड़ते और जहां भी खाली जगह नज़र आती वो पौधे या बीज रोप देते। उन्होंने अपने और अपनी पत्नी के लिए पौधारोपण का संदेश देने वाला एक मुखौटा भी बना लिया। एक तरफ़ वो मनुष्यों को, जीव-जंतुओं को पौधे लगाकर अभयदान देने में जुटे थे तो दूसरी तरफ़ गांव के लोग उन्हें पागल समझने लगे, उनका मज़ाक उड़ाने लगे। लोगों का ये रवैया दरिपल्ली के लिए चौंकाने वाला तो था लेकिन वो इससे ना तो घबराए और ना ही रूके। उनकी पत्नी ने इस महायज्ञ में उनका भरपूर साथ दिया। देखते ही देखते उनके काम की चर्चा होने लगी और साल 2017 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। वो अपने इलाक़े में चेट्टू रमैया या वनजीवी रमैया के नाम से मशहूर हो गए।

अनवरत जारी है अभियान

दरिपल्ली रमैया को भले ही पद्मश्री मिल गया, भले ही कल तक उन्हें पागल बताने वाले, उनका मज़ाक उड़ाने वाले, आज उनकी तारीफ़ों के पुल बांध रहे थे, लेकिन उन्हें ना पहले फ़र्क़ पड़ा और ना सम्मान मिलने के बाद। वो तो बस अपने उद्देश्य में आगे बढ़ते गए। इस साल मई में वो पौधों को पानी देने गए थे। इसी दौरान सड़क पार करते समय वो साइकिल से गिर गए। पैर में फ्रैक्चर आया, सिर में गंभीर चोट लगी। कई दिन तक इलाज चला लेकिन जब वो ठीक हुए तो फ़िर से अपने मिशन में जुट गए।

केवल दसवीं तक की पढ़ाई करने वाले दरिपल्ली का शरीर थक रहा है लेकिन उनका अभियान नहीं। पेड़-पौधों, पर्यावरण और अपनी धरती के लिए किये उनके काम पूरी मावन जाति पर एक विशाल ऋण के तौर पर रहेगा, जिसे सिर्फ़ एक ही तरीक़े से चुकाया जा सकता है, दरिपल्ली की तरह पेड़-पौधे लगाकर। इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट इस धरती पुत्र के जज़्बे और संकल्प को सलाम करता है।