ज़रा सोचिए। अगर हम बोल और सुन नहीं पाते। हमारी बात, हमारी भावनाएं, हमारी सोच, हमारे अपने भी नहीं समझ पाते तो ज़िंदगी कितनी विकट, कितनी कष्टप्रद हो जाती। हमारे समाज में, हमारे आसपास, हमारे कई रिश्तेदार ऐसी ही परेशानी से जूझते हैं जो मूक-बधिर हैं। अच्छी बात ये है कि हममें से ही कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन लोगों की मदद के लिए आगे आते हैं, उनकी भाषा सीखते हैं, उनकी बातें समझते हैं और उनकी परेशानियों को दूर करने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट एक ऐसी ही शख़्सियत की कहानी लेकर आया है जो सांकेतिक भाषा सीख कर मूक-बधिरों की ज़िंदगी में रोशनी भर रही हैं। ये कहानी है बीना सिंह राजपूत की।
मूक-बधिरों की आवाज़
उनका पूरा नाम बीना सिंह राजपूत है। बीना डीफ़ एंड डम्ब कम्यूनिकेटर हैं यानी मूक-बधिरों के सांकेतिक इशारों को आवाज़ देती हैं, वहीं उन्हें सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल कर समझाती भी हैं। बीना आज सांकेतिक भाषा के क्षेत्र में जाना पहचाना नाम हैं। वो ना केवल मूक-बधिरों की संस्थाओं से जुड़ी हैं बल्कि प्रसार भारती में साइन लैंग्वेज एंकर भी हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया की रहने वाली बीना ने बकायदा सांकेतिक भाषा सीखने के लिए कई कोर्स किये हैं। लेकिन ये क्षेत्र उनके लिए केवल आमदनी का ज़रिया भर नहीं है। ये काम उनकी आत्मा से जुड़ा है। बीना भावनात्मक रूप से मूक-बधिरों से जुड़ी हैं। हमेशा उनके बारे में सोचती हैं, उनके लिए कुछ नया, कुछ बेहतर करने के बारे में विचार करती हैं और उसे अमल में लाने की कोशिश भी।
भाई के लिए सीखी सांकेतिक भाषा
बीना की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई देवरिया के तड़वा गांव में ही हुई। ग्रेजुएशन और एमए उन्होंने गोरखपुर के पंडित दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय से किया। वो उस समय अपने गांव की पहली लड़की थी जो पढ़ने के लिए बाहर निकली थी। इसके पीछे उनके पिता की बड़ी भूमिका थी। बीना की मां उनके बचपन में ही गुजर गई थीं। पिता पेशे से पशु चिकित्सक थे। इसके साथ ही उनका बिजनेस भी था। पत्नी के गुजरने के बाद उन्होंने ही अपने बच्चों का पालन-पोषण किया। बीना की बड़ी बहन और छोटा भाई बधिर है। बचपन से ही बीना ने उनकी परेशानी देखी थी। जब भाई सांकेतिक भाषा सीखने के लिए इंदौर गया तो बीना भी चली गईं। उन्होंने महसूस किया कि अब तक वो अपने भाई या बहन के साथ जिस सांकेतिक भाषा में बात करती हैं वो तो कुछ भी नहीं है। मूक-बधिरों की भावना समझने के लिए तो उन्हें भी इसे सही तरीके से सीखना होगा। साल 2016 की बात है। बीना ने भी मूक-बधिर संस्थान में स्पेशल बीएड के कोर्स में दाखिला ले लिया। अब वो वहीं, उसी संस्थान में क़रीब आठ सौ मूक-बधिर बच्चों के साथ रहने लगीं। वो इन बच्चों के साथ ना केवल साइन लैंग्वेज सीख रही थीं बल्कि धीरे-धीरे वो इनके लिए बोल और सुन सकने वाले लोगों के बीच संवाद का ज़रिया बनने लगीं। बीना इन बच्चों के साथ बाज़ार जाती, अस्पताल और दूसरी जगह जाती। वहां उन्हें महसूस होता कि मूक-बधिर लोगों के लिए एक कम्यूनिकेटर की कितनी ज़रूरत है। ये लोग आपस में तो अपनी सांकेतिक भाषा से बात कर लेते हैं लेकिन दूसरे लोगों के साथ इन्हें संवाद करने, अपनी बात बताने में बहुत परेशानी होती है। बीना को इन लोगों की अनुवादक बनकर बहुत अच्छा लगने लगा। जैसे-जैसे उनका कोर्स पूरा हुआ, वो ख़ुद इसमें डूब चुकी थीं। वो कहती हैं कि पता भी नहीं चला कि वो कब इस क्षेत्र में इतना आगे तक बढ़ आईं। इसे वो अपनी ज़िंदगी का नया अध्याय बताती हैं। जिस भाषा को वो सिर्फ़ अपने भाई की भावनाओं को, उनकी बातों को समझने के लिए सीखना चाहती थीं, वो भाषा अब उनके भाई जैसे सैकड़ों बच्चों के लिए मददगार साबित हो रही थी। बीना कहती हैं कि सांकेतिक भाषा सिर्फ़ अनुवाद नहीं है। इस भाषा का पूरा व्याकरण है। ये भाषा मूक-बधिरों के लिए संजीवनी है।
मूक-बधिरों के साथ काम की शुरुआत
कोर्स ख़त्म होने के बाद बीना मूक-बधिरों के साथ लगातार काम कर रही हैं। वो अलग-अलग तरह से मूक-बधिरों को सेवा मुहैया कराती हैं। अगर किसी मूक-बधिर को अदालत में, पुलिस स्टेशन में, स्कूल-कॉलेज में काम होता है तो वो बीना को बुलाते हैं। बीना उनके साथ जाती हैं और उनके काम में कम्यूनिकेटर बनकर मदद करती हैं। बीना बताती हैं कि मूक-बधिर बच्चों पर उनके ही घरवालों को भरोसा नहीं हो पाता कि वो कुछ बेहतर कर सकते हैं। वजह एक ही है-संवादहीनता। ऐसी स्थिति में बीना इन बच्चों और उनके घरवालों के बीच संवाद का ज़रिया बनती हैं। दोनों तरफ़ की बात एक-दूसरे को समझाती हैं और मुश्किलों को आसान बनाती हैं।
दिल को झकझोरने वाले वाकये
बीना बताती हैं कि मूक-बधिर बच्चों के साथ सबसे बड़ी समस्या इसी बात की होती है कि उनके अपने घरवाले उन्हें नहीं समझ पाते हैं। कई बच्चों के साथ बीना का अनुभव बेहद दर्दनाक है। अपने घर में संवादहीनता की वजह से अकेलापन झेल रहे कई बच्चे आत्महत्या तक का फ़ैसला कर लेते हैं। कई बार ऐसे बच्चों ने बीना से भी संपर्क किया है। अच्छी बात ये है कि बीना ऐसे बच्चों और उनके माता-पिता की काउंसलिंग करती हैं। उनके बीच संवाद स्थापित करती हैं। बच्चों और उनके मां-बाप के बीच भरोसा बनाती हैं। वो चाहती हैं कि हर मां-बाप जिनके बच्चे मूक-बधिर हैं वो सांकेतिक भाषा ज़रूर सीखें ताकि अपने बच्चों से बेहतर संवाद स्थापित कर सकें। उनके मुताबिक जिन बच्चों के घरवाले सांकेतिक भाषा जानते-समझते हैं वो बच्चे काफ़ी खुश रहते हैं। इसी तरह का एक वाकया उनके भाई के साथ भी हुआ था। तब भाई उज्जैन में पढ़ाई कर रहा था और बीना भोपाल में रहती थीं। भाई की तबीयत बिगड़ने पर दोस्तों ने उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया लेकिन वहां डॉक्टर उसकी बात, उसकी परेशानी नहीं समझ पा रहे थे। जैसे-तैसे इलाज शुरू हुआ और इसमें भाई की हालत बिगड़ती चली गई। इसके बाद बीना को फ़ोन किया गया। तब बीना की भी तबीयत ठीक नहीं थी लेकिन वो उज्जैन पहुंची। अपने भाई को लेकर वो भोपाल आईं। क़रीब 14 दिनों के इलाज के बाद भाई ठीक हो सका। बीना कहती हैं कि अगर अस्पताल में कोई कम्यूनिकेटर होता तो उनके भाई की तबीयत इतनी नहीं बिगड़ती।
मूक-बधिरों के नाम ज़िंदगी
बीना को कविता-कहानी पढ़ना और लिखना बहुत अच्छा लगता है। उन्हें खेल भी पसंद है लेकिन सबसे ज़्यादा अच्छा उन्हें मूक-बधिरों की मदद करने में मिलता है। वो चाहती हैं कि सरकार मूक-बधिरों के लिए कोई नीति लेकर आए। ऐसी नीति जिसके तहत सभी रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, पुलिस स्टेशन, अदालतों में इंटरप्रेटर हो ताकि मूक-बधिरों को परेशानी ना झेलनी पड़े। वो चाहती हैं कि मूक-बधिरों को नौकरी में पर्याप्त मौक़े मिले। वो कहती हैं कि काश उनके पास इतनी क्षमता होती कि वो इन मूक-बधिरों को नौकरी दे पातीं। लेकिन वो निराश नहीं हैं। आज नहीं तो कल वो कुछ ऐसा ज़रूर करने की योजना बना रही हैं जिससे इन मूक-बधिरों की परेशानी थोड़ी कम हो सके।
लोगों को ज़िंदगी जीने का एक अलग अंदाज़ सिखाने वाली बीना को इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट की तरफ़ से हार्दिक शुभकामनाएं।
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