Home » बचपन संवारती स्वयंबरा
बंदे में है दम

बचपन संवारती स्वयंबरा

हम हमेशा से ही बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर अपना सारा ज़ोर लगाये रहते हैं। कला के प्रति कोई भी रुझान आम तौर पर दोयम ही होता है। लेकिन, कला एक इंसान को बेहतर बनाने में, उसे संवारने में कितना अहम योगदान देती है इस बात को समझाती है इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट की आज की कहानी। आइये आज आपको मिलवाते हैं बिहार के आरा ज़िले की रहने वाली स्वयंबरा से।

यवनिका से बदलाव की शुरुआत

अंग्रेजी की एक कहावत है मैनी फेदर्स इन वन कैप यानी कि एक ही शख़्सियत के पास कई सारी उपलब्धियां। स्वयंबरा इसी बात का उदाहरण हैं। एक रंगकर्मी, एक शिक्षक, एक कलाकार और कला प्रेमी, एक समाजसेवी। वो एक साथ सबकुछ हैं। अपने इलाक़े के बच्चों के लिए वो तब से काम कर रही हैं जब वो ख़ुद भी बहुत छोटी थीं। बात साल 1993 की है जब उन्होंने अपने माता-पिता के सानिध्य में दोस्तों के साथ मिलकर शुरुआत की थी ‘यवनिका’ की। सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यों से जुड़ी उनकी ये संस्था कई तरह के कार्य करती आयी हैं।
लेकिन, एक वक़्त ऐसा आया जब ये महसूस हुआ कि बेहतर समाज का निर्माण करना है तो जड़ों या कहें बीज पर काम करना होगा। मतलब कि बच्चों के साथ काम करना। इसके बाद उन्होंने शुरुआत की बच्चों की प्रतिभा को संवारने, निखारने और उन्हें उचित मंच प्रदान करने की। स्वयंबरा का मानना है कि हर बच्चा ख़ास होता है। हर बच्चे में विशेष प्रतिभा होती है। ज़रूरत है तो बस उसे तराशने की। इसी सोच के साथ उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर शुरुआत की बाल महोत्सव की।

प्रतिभाओं की तलाश और तराशने का अभियान

साल 2004 से लेकर आज तक उनकी संस्था बाल महोत्सव के अंतर्गत गांव-गांव में घूमकर प्रतिभाशाली बच्चों को खोजने और उन्हें मंच प्रदान करने का काम कर रही है। स्वयंबरा बहुत ही गर्व के साथ बताती हैं कि उनके इसी मंच से निकलने बच्चे आज सफल युवा हो चुके हैं। इस महोत्सव के अंतर्गत समय-समय पर चित्रकला, कार्टून, नाटक, नृत्य, संगीत कार्यशाला का आयोजन होता है। साथ ही नाटकों व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। बाल महोत्सव में स्कॉलरशिप का भी प्रावधान है। साथ ही बच्चों को योग, मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी दी जाती है। खेलकूद में बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए भी काम किये जा रहे हैं। इन्होंने बालक और बालिकाओं की  कबड्डी टीम भी बनायी हैं। ट्रेनिंग के साथ-साथ बच्चों को टूर्नामेंट में हिस्सा लेने के लिए भी भेजा जाता है। इन सबके अलावा जब मनोरंजन के लिए पिकनिक का भी प्रोग्राम बनता है तो बच्चे उसमें ख़ूब धूम मचाते हैं।

साल 2004 में ज़िला स्तर पर शुरु हुआ बाल महोत्सव आज राज्य स्तरीय हो चुका है। इस महोत्सव में हिस्सा लेने आयी अनिता की कहानी स्वयंबरा के इस सार्थक अभियान की गवाही देती है।

दलित जाति की इस बच्ची को समाज के तिरस्कार और अपमान की  आदत थी पर साल 2006 के बाल महोत्सव की गायन प्रतियोगिता में पुरस्कार पाने के बाद स्थितियां बदल गयी। उसकी कला ने जातिवादी लोगों के दिल-ओ-दिमाग को बदल दिया। अनिता तो बस एक नाम हैं। ऐसे और भी कई बच्चे हैं जिनका जीवन स्वयंबरा, उनकी संस्था और उनके साथियों ने मिलकर बदला है।

स्वयंबरा एल पी वी शिक्षा निकेतन की प्रधानाध्यापिका भी हैं। बड़हरा प्रखंड के रामसागर गांव में चल रहे इस स्कूल की स्थापना भी स्वयंबरा और उनके साथियों ने ही की है। वो बताती हैं कि बाल महोत्सव के दौरान ही बड़हरा के एक विद्यालय में जाना हुआ। लेकिन वहां की बदहाल स्थिति देखकर लगा कि इस जगह एक ऐसा स्कूल होना चाहिए, जिसमें बच्चों को वो सब कुछ सीखने को मिले जो शहर के बच्चों को मिलता है। इसी सोच के साथ उन्होंने बड़हरा प्रखंड के अत्यंत पिछड़े गांव रामसागर को चुना और फ़िर साल 2013 में इस स्कूल की शुरुआत कर दी। इस स्कूल में ज़्यादातर वो बच्चे पढ़ते हैं जिनके माता-पिता पेशे से मज़दूर हैं या फ़िर बहुत ही निम्न आय वर्ग के हैं।

आरा ज़िला मुख्यालय से क़रीब 15-16 किलोमीटर की दूरी पर बसे इस गांव में तो पहले सड़क तक नहीं थी। बरसात के दिनों में आना-जाना दुश्वार हो जाता था। लेकिन स्वयंबरा हार मानने वालों में से नहीं हैं। उन्होंने ना केवल स्कूल खोला बल्कि उसके ज़रिए सैकड़ों बच्चों को शिक्षा की रोशनी से रोशन भी किया।

वो स्कूल में न सिर्फ़ बच्चों को पढ़ाती हैं बल्कि बच्चों के हेल्थ चेक अप के लिए कैम्प और प्रसिद्ध हस्तियों से मुलाक़ात करवा कर उनमें एक नई चेतना भरने का भी काम करती हैं।

 बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं स्वयंबरा

कथक व शास्त्रीय संगीत (गायन) में प्रभाकर, थियेटर में कई राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार अपने नाम कर चुकी कलाकार, विभिन्न नाटकों की निर्देशक, कोरियोग्राफ़र, ब्लॉगर और भोजपुरी पत्रिका ‘आखर’ की फोटोग्राफ़र स्वयंबरा बतौर पत्रकार भी रांची के एक न्यूज़ चैनल में भी काम कर चुकी हैं। इसके अलावा वो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए कहानियां, कविताएं और आलेख लिखती हैं। वो देश की एक प्रतिष्ठित न्यूज़ वेबसाइट की नियमित स्तंभकार और  आईना वेब न्यूज़ पोर्टल की संपादक भी हैं। ये स्वयंबरा की मेहनत का ही नतीजा है कि आज ये संस्था कई बच्चों का जीवन संवार चुकी हैं। स्वयंबरा बताती हैं कि माता-पिता और शिक्षकों को समझाना कि वो बच्चों में पढ़ाई के इतर भी प्रतिभाएं खोजें, एक मुश्किल काम होता है। लेकिन, उन्होंने हार नहीं मानी। यही हाल आर्थिक स्तर पर भी रहा है। संस्था को स्थापित करने के लिए उन्होंने बहुत संघर्ष किया है। वो बताती हैं कि वर्षों तक तो उन्होंने चंदे और आपसी सहयोग से काम किया। फिर स्थानीय कारोबारियों और कुछ डॉक्टर आदि ने सहयोग किया। हालांकि इस मामले में जंग अब भी जारी है। हम उम्मीद करते हैं कि इस संस्था को आने वाले वक़्त में लोगों का साथ मिले, सरकार का साथ मिले ताकि स्वयंबरा की ये मुहिम देश निर्माण के लिए अनवरत काम करती रहे।