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बंदे में है दम

माताओं की सेवा में जुटी ‘दासी’

कहते हैं इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है और मां का दर्जा तो भगवान से भी ऊपर का है। लोग भगवान की भक्ति तो ख़ूब करते हैं लेकिन अपनी माताओं को दुत्कारते हैं। क्या ऐसी भक्ति का कोई फल मिलेगा ? मां की सेवा प्रभु की सेवा है। इसी संकल्प के साथ एक ‘दासी’ क़रीब 80 माताओं की सेवा में जुटी हैं। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में कहानी सेवा धर्म से जुड़ी उसी ‘दासी’ की।

भक्ति का ‘श्यामा स्वरूप’

उनमें ग़ज़ब की श्रद्धा है। वो भक्ति-भाव से ओत-प्रोत हैं। श्वेत वस्त्र, तुलसी की माला और चंदन का टीका लगाए वो श्यामा क़रीब 80 माताओं की बेटी हैं। वो वृंदावन में गोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर एक किराये के घर में हे राधे करुणामयी पब्लिक चैरेटिबल ट्रस्ट चलाती हैं। तमाम दिक्कतों, तमाम परेशानियों को झेल कर भी वो अपनी माताओं को सारी सुविधाएं देने की कोशिश कर रही हैं। वो ख़ुद को दासी कहती हैं। राधा रानी की दासी के साथ-साथ इन माताओं की दासी। इनका नाम श्यामा दीदी है।

10 साल की उम्र में वृंदावन में बसी

श्यामा दीदी की भी कहानी दिलचस्प है। वो अपने परिवार के साथ कोलकाता में रहती थीं। बचपन में दूसरे बच्चों की तरह वो भी अपने ननिहाल जाना चाहती थीं। दूसरे बच्चों को अपने मामा से मिलते देख वो ख़ुद भी अपने मामा के बारे में पूछती थीं। श्माया के नाना-नानी का देहांत हो चुका था और उनकी मां 6 बहनें ही थीं, भाई एक भी नहीं। तो श्यामा कभी ना नाना-नानी के घर जा पातीं और ना ही मामा से मिल पाती। एक दिन जब वो इसी बात को लेकर ज़िद कर रहीं थी तो उनकी मां ने यूं ही बोल दिया कि उनके मामा वृंदावन में रहते हैं और उनका नाम श्रीकृष्ण है। श्यामा इसे सच मान बैठीं। साल 2000 की बात है। घर के लोग वृंदावन तीर्थ के लिए आ रहे थे तो श्यामा भी उनके साथ चली आई। यहां उन्हें समझ आया कि उनके मामा श्रीकृष्ण कोई इंसान नहीं भगवान हैं। बस फ़िर क्या था, उन्होंने वापस जाने से ही इनकार कर दिया। घरवालों के सामने बड़ी समस्या खड़ी हो गई लेकिन श्यामा अपनी बात से टस से मस ना हुईं। फ़िर घरवालों ने आश्रमों में बात की जहां श्यामा को रखा जा सके। तब श्यामा केवल 10 साल की थीं। कोई भी आश्रम इतनी छोटी बच्ची को रखने के लिए तैयार नहीं था। बड़ी मुश्किल से एक जगह मिली। श्यामा वहां रहने लगीं। गुरु-दीक्षा ली राधा-कृष्ण की भक्ति में डूबती चली गईं। बीच-बीच में परिवार के कई लोग उन्हें मनाने और वापस ले जाने के लिए आए लेकिन श्यामा तो वृंदावन में रच-बस चुकी थीं। जैसे-जैसे श्यामा बड़ी हुईं उन्होंने और भी कई चीज़ों, कई बातों को समझना शुरू किया। कई आश्रमों में रहने के बाद उन्हें यहां रहने वालों लोगों की समस्याओं का भी पता चला।

माताओं से जुड़ाव

वृंदावन में रहते-रहते उनका वहां रहने वाली विधवा माताओं से जुड़ाव होता चला गया। वो अक्सर उनसे बातें किया करती थीं। उनकी कहानियां सुनती। उनके दुख-सुख की बातें बांटती थी। उन्हें अहसास होता था कि इन माताओं से थोड़ी देर बात करने से उनका मन हल्का हो जाता है। एक दिन की बात है। एक माता जिनसे वो रोज़ाना बातें करती थी वो नहीं आईं। पता चला कि उनका एक्सिडेंट हो गया, कमर और पैर की हड्डी टूट गई। लेकिन जब वो उन्हें खोजती हुईं अस्पताल पहुंची तो पता चला कि उन्हें उसी हालत में डिस्चार्ज कर दिया गया। श्यामा बेचैन हो उठीं। उन्होंने उस बुज़ुर्ग माता की तलाश शुरू की। जल्द ही वो उन्हें बहुत बुरी हालत में सड़क के किनारे पड़ी मिली। श्यामा ने बहुत मुश्किल से एक संस्था की मदद से उनका इलाज कराया। इलाज के बाद दिक्कत ये थी उन्हें कहां रखा जाए। श्यामा ख़ुद किसी तरह अपना गुजर-बसर करती थीं। इसी वजह से वो ख़ुद उस संस्था के साथ काम करने लगीं। यहीं से उन्हें माताओं के लिए काम करने की प्रेरणा मिली।

2015 में आश्रम की शुरुआत

कुछ समय दिल्ली में रहने के बाद जब श्यामा वृंदावन लौटीं तो वो माताएं उनके पास पहुंच गईं। सबने एक सुर से श्यामा से गुहार लगाई कि वो कभी उन्हें छोड़ कर ना जाए। माताओं का ये प्रेम देखकर श्यामा ने अपने आश्रम की शुरुआत का फ़ैसला किया। एक किराये का मकान लिया और वो अपनी माताओं के साथ वहां रहने लगीं। गुजर-बसर के लिए भिक्षा का सहारा था। कुछ माताएं सब्ज़ी-मंडी में फेंकी गई सब्ज़ियों को छांट कर लाती थीं। कुछ सिलाई और कुछ फूल मालाएं बनाकर बेचा करती थीं। शुरुआत में बहुत परेशानियां आईं लेकिन श्यामा ने अपनी माताओं के साथ मिलकर उनका डटकर सामना किया। अब ये आश्रम आकार ले चुका है। 70 से ज़्यादा माताएं यहां रहती हैं। एकजुट होकर काम करती हैं। दुख-सुख बांटती हैं।

माताओं से प्यार

श्यामा की भक्ति अब माताओं से जुड़ चुकी है। वो कहती हैं कि माताएं उनके साथ नहीं, वो माताओं के परिवार में रह रही हैं। उनका सौभाग्य है कि वो माताओं की सेवा कर रही हैं। अपने आश्रम में वो माताओं को ना सिर्फ़ रहने और खाने-पीने की सुविधा मुहैया करवा रही हैं बल्कि समय-समय पर उनकी स्वास्थ्य जांच और बीमार पड़ने पर समुचित उपचार का भी प्रबंध करती हैं। श्यामा बताती हैं कि उनके आश्रम के द्वार हर ज़रूरतमंद माताओं के लिए खुले हैं। यहां हर काम माताओं की मर्जी से ही होता है। वो जो चाहती हैं वही खाना बनाती हैं, वही भोग चढ़ाती हैं, वही प्रसाद बनाती हैं।

राधा-कृष्ण की कृपा से आते हैं वृंदावन

श्यामा के आश्रम में देश भर से आई माताएं रहती हैं। वो जो अपने पति की प्रताड़ना से तंग आकर घर छोड़ आईं, वो जिनके बच्चों ने उन्हें बेसहारा छोड़ दिया, वो जिनके घरवाले अब उन्हें देखना तक नहीं चाहते। यूं तो श्यामा को इन माताओं की कहानी सुन कर बहुत दुख होता है लेकिन वो कहती हैं कि वृंदावन आना और यहां रहना ही अपने आप में सबसे बड़ा सौभाग्य है। ये राधा-कृष्ण की मर्जी ही है कि वो यहां आकर रह रही हैं। श्यामा दीदी की ये संकल्प यात्रा जारी है। हमारी शुभकामनाएं उनके साथ है।