कहते हैं नानी-दादी के नुस्ख़े कई बीमारियों को रफ़ूचक्कर कर देते हैं। वैद्य और गुणियों की जड़ी-बूटियां असाध्य रोगों को भी साध लेती हैं लेकिन आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में हम अपने पुरखों के इन बेशक़ीमती ख़ज़ानों को खोते जा रहे हैं। लेकिन हममें से ही कई ऐसे भी लोग हैं जो इन्हें बचाने, इन्हें सहेजने में जुटे हैं। ऐसे ही एक युवा हैं दीपक आचार्य। दीपक ‘भटकने’ के मूल मंत्र पर काम करते हैं। उनके मुताबिक जो भटकते हैं वही कुछ ढूंढते हैं, कुछ जानते हैं, कुछ पहचानते हैं।
एयर कंडिशन्ड कमरे से जंगल तक का सफ़र
एक 46 साल का युवा आख़िर क्यों जंगल-जंगल भटक रहा है ? क्यों अच्छी ख़ासी नौकरी और अपनी ख़ुद की बनाई कंपनी छोड़ कर सुदूर गांव देहातों में घूम रहा है ? दीपक की कहानी कई लोगों को हैरत में डाल देती है। लोगों के मन में इसी तरह के सवाल घूमने लगते हैं। कइयों को तो वो सनकी जैसे लगते हैं लेकिन सच ये है कि उनकी यही सनक हमें वो विरासत खोज कर दे रही है जिसे हम लगातार खोते जा रहे हैं।
दीपक एक साइंटिस्ट हैं। मध्यप्रदेश के बालाघाट के कटंगी गांव में जन्मे दीपक बचपन से ही जंगलों के आसपास रहे। गांव-देहात में रहने के कारण उनका जंगल से ऐसा रिश्ता जुड़ा जो शहर और करियर की आपाधापी में भी कभी कमज़ोर नहीं पड़ा। उन्होंने प्लांट साइंसेज़ में मास्टर्स किया, माइक्रो बायोलॉजी में PhD., पोस्ट डॉक्टरेट इथोनोबॉटनी में किया। यानी पढ़ाई में भी उन्होंने अपने अंदर के जंगल प्रेम को ज़िंदा रखा। पढ़ाई पूरी हुई तो नौकरी शुरू हो गई। नौकरी के बाद अपनी भी कंपनी बना ली। काम अच्छा चलने लगा लेकिन जंगल उन्हें बुलाता रहा, पुकारता रहा। और जंगल की इसी आवाज़, इसी पुकार को सुन कर दीपक ने जंगल पर काम करना शुरू कर दिया।
जन-जंगल और जज़्बात
अपने इसी प्यार को जुनून में बदल कर दीपक जंगल की तरफ निकल पड़े। उन्होंने मध्य प्रदेश के पातालकोट, राजस्थान के रणथंबौर और गुजरात के डांग को अपना ठिकाना बनाया। वो इन जंगलों में बसे आदिवासियों के बीच जाने लगे। उनसे जड़ी-बूटी, पेड़-पौधों की जानकारी हासिल करने लगे। दीपक इन जानकारियों का डिजिटल डॉक्यूमेंटेशन कर रहे हैं। एक वैज्ञानिक होने के नाते दीपक इलाज की पुरानी पद्धतियों और नुस्ख़ों को वैज्ञानिक तौर पर परखते भी हैं। और इसके बाद जो परिणाम आता है उसे वो अपने रिसर्च में शामिल करते हैं।
दीपक का ये काम आपको शायद बहुत आसान लग रहा होगा। आप थोड़े रोमांचित भी हो रहे होंगे। एडवेंचर सा लग रहा होगा। लेकिन आपको क्या ये लगता है कि जंगल में रह रहा कोई आदिवासी, शहर से आए एक आदमी के लिए अपनी जानकारी, अपने ज्ञान का भंडार यूं ही कैसे खोल देगा ? इसके लिए दीपक को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। आदिवासियों और गांव के लोगों का भरोसा पाना होता है। उनकी संस्कृति, उनके रिवाज़ों, उनकी मान्यताओं, उनकी आस्थाओं को जानना-समझना पड़ता है, उनका आदर करना पड़ता है।
जब आदिवासी उन पर भरोसा करने लगते हैं तब वो उन्हें अपने साथ जंगल ले जाते हैं। पेड़-पौधों की जानकारी देते हैं। लेकिन तब भी उन्हें सारी जड़ी-बूटियों और उनके नुस्ख़ों की जानकारी नहीं मिल पाती।
बुज़ुर्गों के पास ज्ञान का भंडार
आदिवासियों या गांव के बड़े-बुज़ुर्गों के पास पारंपरिक ज्ञान का भंडार होता है। वो जानकारियां, वो नुस्ख़े, वो इलाज के उपाय, जो कहीं लिखे हुए नहीं होते, सिर्फ़ अनुभवों में छिपे होते हैं, वो उन बुज़ुर्गों के पास मिलता है। दीपक ऐसे बुज़ुर्गों से बात करते हैं। उन्हें समझाते हैं कि उनका ये ज्ञान मानव जाति के लिए कितना ज़रूरी है। उन्हें बताते हैं कि उनके बाद ये बेशक़ीमती ज्ञान भी ख़त्म हो जाएगा, तब जाकर वो बुज़ुर्ग अपने अनुभवों और अपने ज्ञान को दीपक के साथ बांटने के लिए तैयार होते हैं।
पारंपरिक ज्ञान और औषधि को नकारना ग़लत
आज हम किसी भी जड़ी-बूटी से इलाज करने वाले के लिए बड़ी आसानी से कह देते हैं कि भई नीम हकीम ख़तरा-ए-जान! लेकिन जब हल्दी का पेटेंट भारत जीत जाता है तो हम गर्व से कहते फिरते हैं कि हल्दी तो हमारे देश की है। सालों नहीं सदियों से इस्तेमाल की जा रही है लेकिन तब हम ये नहीं सोचते कि हल्दी भी तो इन्हीं जड़ी-बूटियों में से एक है। बस इसका इस्तेमाल आम हो गया है। पूरी कॉस्मेटिक इंडस्ट्रीज़ एलोविरा पर टिकी है। आंवला, ब्राह्मी, मुलेठी, जीरा, काली मिर्च और ना जाने क्या-क्या। ऐसे एक-दो नहीं हज़ारों उदाहरण हैं। ये तो वो हैं जिन्हें आम लोग जानते हैं और कहीं ना कहीं इस्तेमाल भी कर रहे हैं लेकिन कई जड़ी-बूटियों का पता किसी को नहीं चलता और ख़त्म होते जंगलों के साथ-साथ वो भी ख़त्म हो रही हैं। दीपक इन्हीं जड़ी-बूटियों को बचाने का काम भी कर रहे हैं। दीपक के मुताबिक आदिवासियों की मान्यता है कि हर बीमारी का इलाज आपके बीस किलोमीटर के दायरे में मिल जाता है। कोई ना कोई जड़ी-बूटी, पेड़-पत्ते बीमारी का इलाज करने की क्षमता रखते होंगे लेकिन क्या आज हमें ये जड़ी-बूटी कंक्रीट के जंगलों में मिल पाएगी ? कहने का मतलब साफ़ है कि अगर जंगल ही ना रहे तो जड़ी-बूटी कैसे मिलेगी, बीमारियों का इलाज कैसे मिलेगा।
एक्सपेरिमेंट और एक्सपीरिएंस की लड़ाई
दीपक मॉर्डन मेडिसिन और हर्बल मेडिसिन के बीच को एक्सपेरिमेंट और एक्सपीरिएंस की लड़ाई बताते हैं। वो कहते हैं कि मॉर्डन मेडिसिन एक्सपेरिमेंट पर भरोसा करता है जबकि हर्बल मेडिसिन एक्सपीरिएंस पर। दीपक के मुताबिक वैज्ञानिकों को हर्बल मेडिसिन के एक्सपिरिएंस को एक्सपेरिमेंट से जोड़ना चाहिए। उन हर्बल मेडिसिन को विज्ञान की कसौटी पर परखना चाहिए। इससे ना केवल दवा बनाने में लगने वाले करोड़ों रुपये बचेंगे बल्कि समय पर दवाएं भी तैयार हो सकेंगी।
सोशल मीडिया का इस्तेमाल
दीपक अक्सर अपनी जंगल यात्रा की तस्वीरें, वीडियो अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर डालते रहते हैं। कभी किसी पेड़ के बारे में बताते हैं, कभी किसी जंगली फल की जानकारी देते हैं। जंगल में अपने भटकाव को शब्दों और भावों में ऐसे पिरोते हैं कि देखने और पढ़ने वाले का भी दिल कर आए कि वो भी तुरंत उस जंगल में पहुंच जाए। दीपक मानते हैं कि सोशल मीडिया की मदद से वो कई लोगों में बदलाव लाने में सफल हुए हैं। लोग उनसे जुड़ कर जंगल से जुड़ रहे हैं। अपनी परंपरागत थातियों से जुड़ रहे हैं। दीपक का कहना है कि अगर एक या दो लोग भी उनसे प्रेरणा लेकर कुछ सकारात्मक करने लगे तो उनका अभियान सार्थक हो जाता है। उनके मुताबिक अगर वो भी जंगल से मिल रही इन जानकारियों को सिर्फ़ कंप्यूटर में क़ैद कर देंगे तो उनकी मेहनत फ़िजूल है। इसलिए वो इसे बांटना चाहते हैं और आज से समय में सोशल मीडिया से बढ़िया प्लेटफॉर्म इसके लिए और कुछ नहीं।
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