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बंदे में है दम

मंजूषा के साधक मनोज

कला और कलाकार एक दूसरे के पूरक होते हैं। एक कलाकार अपनी साधना से उस कला को एक नई पहचान दिलाता है। उस कला को जीवित रखता है, आगे बढ़ाता है तो वहीं उस कला के जरिये ही वो कलाकार भी अपनी पहचान पाता है। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में कहानी ऐसी ही एक कला और उसके कलाकार की। ये कहानी है बिहार की प्राचीन कला मंजूषा और कलाकार मनोज कुमार पंडित की।

कला को मिला नया आयाम 

जब भी मंजूषा कला का ज़िक्र आएगा, तब इस कला के साधक मनोज कुमार पंडित की चर्चा ज़रूर होगी। 13 जनवरी 1975 को भागलपुर के मोहद्दीनगर में जन्मे मनोज कुमार पंडित ने इस कला को ना केवल ज़िंदा रखने में अहम योगदान दिया बल्कि इसे आगे बढ़ाने का भी सार्थक और भरपूर प्रयास किया। जब इस कला को जातियों के दायरे में बांध कर रख दिया गया था, तब मनोज पंडित ने इसमें नई सांस फूंकने का काम किया। जब लोग इस कला को हंसी-मज़ाक का विषय मानते थे तब मनोज ने अपनी लगन और दृढनिश्चय से इसे एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंचा दिया कि अब ये कला भागलपुर से निकल कर अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी चमक बिखेर रही है। मंजूषा को नई पहचान दिलाने के लिए मनोज कुमार पंडित को केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने मंजूषा गुरु के सम्मान से नवाज़ा है। इसके साथ ही उन्हें बिहार कला पुरस्कार, मंजूषा कला के क्षेत्र में राज्य पुरस्कार, नाबार्ड की तरफ़ से विशिष्ट कला सम्मान जैसे अनगिनत सम्मान मिल चुके हैं।

बचपन से ही मंजूषा से जुड़ाव 

मंजूषा से मनोज का नाता उनके बचपन में ही जुड़ गया था। मनोज की माताजी निर्मला देवी एक पांरपरिक मंजूषा कलाकार थी। घर में अपनी मां को चित्रकारी करते देख मनोज ख़ुद ब ख़ुद इससे जुड़ते चले गए। उनकी कला में बड़ा बदलाव तब आया जब उनका परिवार एक आर्थिक संकट में फंस गया। आम तौर पर उनकी मां कारोबार की दृष्टि से मंजूषा कलाकारी नहीं किया करती थी, लेकिन जब पैसे की दिक़्क़त हुई तो उन्होंने अपनी कला को आय का ज़रिया बनाने का फ़ैसला किया। मां को मंजूषा पेंटिंग के साथ-साथ बर्तनों, खिलौनों और दूसरी कलाकृतियां बनाते देख मनोज भी इसे सीखते चले गए। मंजूषा कलाकारी से सजे लोक कथाओं के पात्र, धार्मिक और पौराणिक चरित्र, पूजा-पाठ, शादी-ब्याह और दूसरे अनुष्ठानों में प्रयोग में लाये जाने वाले सामान लोगों को ख़ूब पसंद आने लगे। केवल आठ साल की उम्र में ही मनोज के मंजूषा कलाकारी पर सधते हाथों को देखकर उनकी मां निर्मला देवी समझ गई कि मनोज का भविष्य किस दिशा में तय हो रहा है। उन्होंने मनोज की इस कला को और निखारने का फ़ैसला किया और उन्हें इस कला में और पारंगत होने के लिए तब मंजूषा की नामी कलाकार चक्रवर्ती देवी के पास भेजा। चक्रवर्ती देवी ख़ुद तो इस कला में निपुण थी ही, लेकिन उन्हें हमेशा इस कला के भविष्य की चिंता सताते रहती थी। उन्हें लगता था कि उनके बाद इस कला का अस्तित्व धीरे-धीरे मिट जाएगा। वो हमेशा इस बात पर ज़ोर देती थी कि ये कला तभी जीवित रह पाएगी जब ये लोगों के जीने का ज़रिया बनेगी। चक्रवर्ती देवी से मनोज ने मंजूषा कला की बारीकियां सीखीं। 

राह बदली लेकिन मंजिल नहीं 

मनोज ने अपनी शिक्षा भी कला के क्षेत्र में ही हासिल की। चंडीगढ़ से उन्होंने फाइन आर्टस में मास्टर्स की डिग्री हासिल की। वो काम की तलाश में दिल्ली और मुंबई में भी रहे लेकिन उनकी किस्मत उन्हें वापस भागलपुर ले आई। यहां एक बार फ़िर वो मंजूषा से जुड़ गये। ब्रश और रंगों से भरा झोला लेकर वो गांव-गांव घूमने लगे। कभी दीवारों को कैनवॉस बना लिया, कभी बर्तनों पर चित्र उकेर दिये। मनोज ने ख़ुद को पूरी तरह से मंजूषा के लिए समर्पित कर दिया। एक समय तो स्थिति ये हो गई कि लोग उन्हें पागल समझने लगे थे लेकिन मनोज नहीं रूके। धीरे-धीरे लोगों को भी उनका काम समझ में आने लगा। कई युवा, कई बच्चे उनसे मंजूषा सीखने के लिए जुड़ने लगे। उन्होंने कला सागर नाम के एक संगठन की शुरुआत की। इसके तहत वो अपनी कला साधना को आगे बढ़ा रहे थे। बच्चों के लिए समर कैंप लगाकर मंजूषा सिखाना, गांव-गांव जाकर लोगों को इस कला के बारे में समझाना और अपने साथ जोड़ना, जैसे उनका धर्म बन गया था। मनोज पंडित ने लोगों से अपनी कला और संस्कृति को बचाने की अपील की। मंजूषा महोत्सव का आयोजन कर लोगों को अपनी कला से जोड़ने का प्रयास किया।

साल 2006 से बदली स्थिति

2005 तक मनोज का संघर्ष अनवरत चलता रहा। ये संघर्ष रंग लाया साल 2006 में जब भागलपुर में राष्ट्रीय युवा दिवस के कार्यक्रम का आयोजन हुआ। कार्यक्रम में शिरकत करने आए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मंजूषा पेंटिंग भेंट की गई। इसके बाद पटना में आयोजित कला प्रदर्शनी में मंजूषा पेंटिंग की दीर्घा लगाई गई। अब तस्वीर बदलने लगी। ग्रामीण विकास मंच और नाबार्ड की मदद से मंजूषा पेंटिंग के वर्कशॉप लगाए गए। अब ये कला लोगों के रोज़गार का साधन भी बनने लगी। मनोज पंडित की अगुवाई में दिल्ली समेत कई शहरों में आयोजित प्रदर्शनी में मंजूषा कलाकारी की धमक सुनाई देने लगी। 

प्राचीन लोककला मंजूषा 

बिहार की धरती अपने आंचल में कई लोककलाओं को समेटे-सहेजे हुए है। इन्हीं में से एक है मंजूषा। ये कला मूल रूप से बिहार के अंग क्षेत्र से जुड़ी है। महाभारतकालीन अंग क्षेत्र आज भागलपुर कहलाता है। भागलपुर अपने ख़ास रेशम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध रहा है। यहीं तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय के स्तर का विक्रमशिला विश्वविद्यालय भी था जहां दुनिया के कई हिस्सों से छात्र आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। ये क्षेत्र कला के मामले में भी बहुत संपन्न रहा है। पौराणिक और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण चंपा नदी के तट पर एक ख़ास चित्रकला विकसित हुई। एक श्रृंखलाबद्ध तरीके से की जाने वाली ये चित्रकारी कई लोक कथाओं का जीवंत चित्रण करती थी। बहुला-विषहरी और मनसा की कथाओं को इस चित्रकारी में उकेरा जाता था। इसे मंजूषा के नाम से जाना जाता है। मंजूषा अंग क्षेत्र की कला और संस्कृति की बड़ी विरासत है। शुरुआत में कुम्हार और मल्लाह जाति के लोग ही इस कला से जुड़े थे। मंजूषा पेंटिंग की एक ख़ास बात ये है कि इसमें सिर्फ़ तीन रंगों का ही इस्तेमाल होता है। गुलाबी, लाल और हरे रंग के अलावा कोई और रंग प्रयोग में नहीं लाया जाता। ये रंग भी फूलों से बनाये जाते हैं। मंजूषा पेंटिंग भी मिथिला पेंटिंग की तरह कला के क्षेत्र में अहम स्थान रखती है। 

मंजूषा के उत्थान में आर्चर का योगदान 

मंजूषा कला के उत्थान में एक ब्रिटिश दंपती का भी बड़ा योगदान माना जाता है। बताया जाता है कि साल 1931 से 1948 के बीच एक आईसीएस अधिकारी डब्ल्यू जी आर्चर और उनकी पत्नी की नज़र मंजूषा चित्रकारी पर पड़ी। उन्होंने इस कला की जानकारी जुटाई और फ़िर लंदन की एक प्रदर्शनी में मंजूषा को प्रदर्शित किया। उस समय ही मंजूषा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली थी। मंजूषा आज सिर्फ़ कैनवॉस पर ही नहीं, साड़ियों समेत कई परिधानों, बर्तनों, कलाकृतियों पर नज़र आ रही है। उम्मीद है कि मनोज कुमार पंडित की मंजूषा साधना इसे और ऊंचाइयों तक ले जाएगी।

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  • अंग प्रदेश की तरफ़ से बहुत बहुत आभार। मंजूषा की विकास यात्रा में शामिल होने के लिए। कृपया मंजुषा को मंजूषा कर दें।