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बंदे में है दम

मुन्नी देवी की कला यात्रा

हमारे देश की लोक कलाएं इतनी समृद्ध और अनूठी हैं जिनकी दुनिया भर में मिसाल मिलनी मुश्किल है। ऐसी ही एक लोक कला है सिक्की कला। सिक्की एक ख़ास क़िस्म की घास सावा से बनती है। जलजमाव वाले इलाक़े में ये ख़ास ख़ुद-ब-ख़ुद उगती है। जब इसमें फूल आ जाते हैं तो इसे काट लिया जाता है। तैयार होने पर ये पीले रंग की हो जाती है। कई जगह इसे खर भी कहा जाता है। बिहार के मिथिला और सीमांचल में इसी सिक्की से कई तरह की कलाकृतियां बनाई जाती है। इस कला को सिक्की कला के नाम से जाना जाता है। कई कलाकारों ने इस कला को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है तो उन कलाकारों की पहचान इस कला के ज़रिये ही बनी है। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट सिक्की कला की एक ऐसी ही कलाकार की कहानी लेकर आया है जिन्होंने इसी कला के दम पर अपना एक मक़ाम हासिल किया है।

राज्य पुरस्कार से सम्मानित मुन्नी 

दिल्ली के प्रगति मैदान में हाल ही में आयोजित अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में बिहार पवैलियन में लगे स्टॉल्स तो लोगों को अपनी तरफ़ खींच ही रहे थे लेकिन लोगों की भीड़ वहां ठिठक रही थी जहां बिहार की लोक कलाओं की जीवंत प्रस्तुति हो रही थी। इसी में से एक थी सिक्की कला की कलाकार मुन्नी देवी। मुन्नी देवी रंग-बिरंगी सिक्कियों से कंगन, डलिया, फूलदान समेत कई तरह की कलाकृतियां बना रही थीं। टकुआ, कैंची और कटर के इस्तेमाल से एक घास से इस तरह की कलाकृतियों को अपने सामने बनते देखना दर्शकों को हतप्रभ कर रहा था। सिक्की कलाकार मुन्नी देवी बिहार सरकार द्वारा राज्य पुरस्कार से सम्मानित हैं। वो बिहार की सिक्की कला की बड़ी कलाकारों में से एक हैं। मृदुभाषी मुन्नी देवी से लोग इस कला के बारे में जानकारी हासिल कर रहे थे। उन्हें एक-एक सिक्की को बिनते देख रहे थे और फ़िर उससे तैयार होती आकृति को साकार होता देख रहे थे। 

छोटे से गांव से निकल कर बुलंदी पर पहुंची 

मुन्नी देवी का जन्म नेपाल में हुआ था। पिता जोगिंदर ठाकुर और माता बासमती देवी के घर मुन्नी देवी समेत पांच बेटियां थी। माता-पिता ने बेटियों पर कभी कोई बंदिश नहीं रखी। खेलने-पढ़ने सबकी आज़ादी थी। घर भी सम्पन्न था। किसी बात की कमी नहीं थी। हालांकि मुन्नी देवी बताती हैं कि उन्हें ही पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी इसलिए पांचवीं के आगे वो नहीं पढ़ी। 16 साल की उम्र में उनकी शादी झंझारपुर के रैयाम गांव में हो गई। यहां से उनके जीवन में बदलाव आने शुरू हो गए। एक तरफ़ वो सम्पन्न परिवार में पली-बढ़ी थीं तो दूसरी तरफ़ ससुराल में स्थिति उलट थी। पति की किराने की दुकान थी जो अक्सर बंद ही रहती थी। बच्चे होने के बाद घर की माली हालत और बिगड़ने लगी। घर की मदद के लिए मुन्नी देवी की सास सिक्की से मौन-डलिया बनाकर बेचा करती थी। सिक्की कला से मुन्नी देवी पहले से ही वाकिफ़ थी। मुन्नी देवी की मां भी सिक्की से मौनी-डलिया बनाया करती थीं। सास को मौनी-डलिया बनाते देख मुन्नी देवी भी उनके साथ जुड़ गई। अब दोनों सास-बहु मिलकर सिक्की से सामान बनाने लगीं और उसे बेच कर अपनी माली स्थिति को ठीक करने में जुट गईं। तब सिक्की से बने सामान का इस्तेमाल ज़्यादातर शादी-ब्याह या इसी तरह के धार्मिक-पारिवारिक आयोजनों में होता था। लोग डलिया, मौनी, सूप जैसे सामानों की ख़रीद करते थे।  

बेहतर काम से बनी पहचान 

यूं तो मिथिला के हर दूसरे घर में सिक्की से सामान बनाए जाते हैं लेकिन मुन्नी देवी का हाथ इस पर ऐसा सधा कि उनकी बनाई चीज़ें दूसरों से मुकाबले काफ़ी अच्छी होती थी। इससे लोग उनके हाथों से बनी चीज़ें ख़ास तौर पर ख़रीदने लगे। अब स्थानीय स्तर पर उनकी पहचान बन चुकी थी। साल 1982 का साल मुन्नी देवी समेत सिक्की कला के कई कलाकारों के लिए एक नई शुरुआत लेकर आया। बिहार सरकार की तरफ़ से रैयाम गांव में एक ट्रेनिंग और प्रोडक्शन सेंटर खोला गया। इसमें सिक्की कलाकारों को दूसरे उत्पाद बनाने की ट्रेनिंग दी गई। धीरे-धीरे गांव और आसपास के इलाक़ों में और भी ट्रेनिंग सेंटर खोले जाने लगे। कलाकार सिक्की से चीज़ें तो बना ही रहे थे, ज़रा सी ट्रेनिंग ने उन्हें परंपरागत चीज़ों से हटकर नए उत्पाद बनाने का रास्ता बता दिया। मुन्नी देवी भी अब मौनी-डलिया के अलावा कई तरह के खिलौने, टेबल मैट, फूलदान, गमले, देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, ज्वेलरी बॉक्स, कलश समेत कई चीज़ें बनाने लगीं। 

2008 में काम को मिला विस्तार 

साल 2008 में गांव में एक सेंटर खोला गया। ये सेंटर गांव की महिलाओं को सिक्की से बने सामानों का ऑर्डर दिया करता था। फ़िर ये सामान दिल्ली समेत कई शहरों में बेचे जाते थे। इससे गांव के कलाकारों को अच्छा काम मिलने लगा और उससे साथ-साथ उनके काम का उचित दाम भी। कई बार इस सेंटर पर डिज़ाइनर भी आते थे। वो अपने डिज़ाइन इन कलाकारों को बताया करते थे और ये कलाकार उसी के आधार पर सामान तैयार कर दिया करते थे। मुन्नी देवी को इस सेंटर से काफ़ी फ़ायदा पहुंचा। उनके काम को ख़ूब सराहा गया। एक नई पहचान बनी।

सिक्की से बना मड़वा संग्रहालय पहुंचा

मुन्नी देवी ने अपनी कलाकारी के दायरे को आम कलाकारों से बड़ा कर लिया। उनके सधे हाथ बड़ी-बड़ी कलाकृतियां बनाने लगे। सिक्की से बनाया 10 फीट के आम का पेड़ और 4 फीट के हाथी को ख़ूब प्रशंसा मिली। बिहार में शादी में बनने वाले मड़वा जिसे आम तौर पर मंडप कहा जाता है, मुन्नी देवी ने उसे सिक्की से बना दिया। ये इतना सुंदर और भव्य है कि इसे बिहार म्यूज़ियम में जगह दी गई है। साल 2012-13 में मुन्नी देवी को बिहार सरकार ने राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया है। अपनी कला यात्रा में मुन्नी देवी देश के कई शहरों का भ्रमण कर चुकी हैं। वो ना केवल ख़ुद सिक्की से कलाकृतियां बना रही हैं बल्कि नई पीढ़ी को भी इस लोक कला से जोड़ रही हैं। वो गांव में ही सिक्की आर्ट की ट्रेनिंग देती हैं। मुन्नी देवी की कला यात्रा यूं ही चलती रहे और इसी तरह वो इस लोक कला को आगे बढ़ाती रहें। इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट मुन्नी देवी को शुभकामनाएं देता है।