कभी हमारे घर-आंगन में चहचहाने वाली, फुदकने वाली गौरैया कब ग़ायब होने लगी हमें पता भी नहीं चला। जब तक समझ में आया तब तक देर हो गई थी। ये नन्हीं चिड़ियां विलुप्त होने के कगार पर है। शहरों की बात छोड़िये, कई गांवों में भी अब ये दिखाई नहीं देती। सरकारों ने इसे बचाने के लिए कई घोषणाएं की, कई संस्थाएं और पर्यावरणप्रेमी सामने आए और कई तरह की योजनाएं चलाई गई ताकि इस परिंदे को वापस बुलाया जाए। इन कोशिशों में सैकड़ों ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपने स्तर पर इस मुहिम में अपना योगदान दिया और दे रहे हैं। उन्हीं में से एक हैं कानपुर के नरेंद्र सिंह यादव। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट पर कहानी नरेंद्र सिंह यादव की जिन्हें लोग स्पैरो मैन के नाम से जानते हैं।
एक कैंसर पीड़ित का गौरैया प्रेम
62 साल के नरेंद्र सिंह यादव ने अपनी ज़िंदगी गौरैया बचाने के नाम कर दी है। पिछले 13 साल से वो गौरैया संरक्षण अभियान में जुटे हुए हैं। मूल रूप से उन्नाव के बाशिंदे और डिविजन ज्वाइंट डेवलपमेंट कमिश्नर के पद से रिटायर हुए नरेंद्र अपने परिवार के साथ कानपुर में रह रहे हैं। नरेंद्र सिंह को ब्लड कैंसर है। लगातार गिरती सेहत, कई तरह की शारीरिक परेशानियों और इलाज के लिए उन्होंने वॉलेंटरी रिटायरमेंट ले लिया था। लेकिन नौकरी छोड़ने के बाद भी वो रुके नहीं। उन्होंने गौरैया संरक्षण को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया।
2012 से शुरू हुआ मिशन गौरैया
नरेंद्र सिंह तब सर्विस में ही थे। अख़बारों और टेलीविजन पर गौरैया की विलुप्ति की ख़बर आने लग गई थी। उन्होंने भी ध्यान दिया कि जो चिड़ियां घर-आंगन में रात-दिन फुदकती रहती थी, अचानक ग़ायब हो गई है। इसके बाद उन्होंने गौरैया के लिए कभी दाना-पानी तो कभी रोटी रखनी शुरू कर दी। इसी बीच कानपुर में उनकी मुलाक़ात रिटायर बैंक कर्मचारी सीएल खन्ना से हुई। वो भी गौरैया प्रेमी थे और उनके संरक्षण के लिए काम कर रहे थे। दोनों की रुचि एक ही थी। सीएल खन्ना से मिलकर नरेंद्र जी के गौरैया प्रेम को नया रास्ता मिल गया। अब तक वो केवल इन परिंदों के लिए दाना-पानी ही रख रहे थे लेकिन सीएल खन्ना गत्तों और लकड़ी से गौरैया के लिए घोंसला बना रहे थे। वो ना केवल ख़ुद इन घोंसलों को अपने घर में लगाते थे बल्कि दूसरे गौरैया प्रेमियों के बीच भी बांटा करते थे। नरेंद्र सिंह को जब खन्ना जी के बारे में पता चला तो वो उनसे मिलने पहुंच गये। सीएल खन्ना ने नरेंद्र जी को पांच घोंसले बना कर दिये। ये साल 2012 की बात है। नरेंद्र जी ने इन घोंसलों को अपने घर में टांग दिया। अब वो बेसब्री से इन घोंसलों में गौरैया के आने का इंतज़ार करने लगे। ये इंतज़ार थोड़ा लंबा था। गौरैया उनके दिये खाने को तो खा जाती थीं लेकिन घोंसले में रहती नहीं थी। क़रीब दो महीने बाद जब गौरैया ने इन्हें अपना आशियाना बनाया तो नरेंद्र जी की जैसे तपस्या सफल हो गई। ये ख़ुशख़बरी उन्होंने सबसे पहले खन्ना जी को सुनाई। ये दोनों के लिए बहुत ख़ुशी की बात थी। इसके बाद से नरेंद्र सिंह के लिए नया सिलसिला शुरू हो गया।
6000 से ज़्यादा घोंसले बांटे
नरेंद्र सिंह ने साल 2013 से ख़ुद भी घोंसले बनाने और बांटने शुरू कर दिये। अपने वेतन का दस फ़ीसदी हिस्सा वो इन गौरैयों के नाम अलग कर देते थे। इससे वो उनके घोंसले बनाते, दाना-पानी का इंतज़ाम करते। यहां तक कि घायल गौरैयों का इलाज भी करते। अब तक नरेंद्र जी ने क़रीब 1लाख 20 हज़ार गौरैयों के संरक्षण का काम किया है। अक्सर वो सार्वजनिक स्थानों पर कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं जिसमें वो गौरैया प्रेमियों को नि:शुल्क बांटा करते हैं। कई कार्यक्रमों में उनको अतिथि के तौर पर बुलाया जाता है। वो अब तक 6000 से ज़्यादा घोंसले बनाकर बांट चुके हैं। गौरैया दिवस हो या उनका या उनके किसी घरवाले का जन्मदिन, वो ख़ास आयोजन कर घोंसला वितरण करते हैं।
परिवार का हिस्सा बनीं गौरैया
नरेंद्र सिंह के इस मिशन गौरैया में उनका परिवार भी उनका पूरा साथ देता है। बेटियां घोंसले बनाने से लेकर उन्हें पैक करने तक में पूरी मदद करती हैं। इन नन्हीं जान को खाना-पानी देने में भी परिवार का साथ रहता है। गौरैया को नरेंद्र के परिवार ने अपने घर-परिवार का हिस्सा ही बना लिया। उन्होंने अपने घर रहने वाली गौरैया का नामकरण भी शुरू कर दिया। किसी का नाम दुलारी तो कोई राजू। गौरैया और उनके बच्चों की चहचहाहट से नरेंद्र का घर गुलजार हो गया।
कैंसर में दवा बनी गौरैया
नरेंद्र और उनके परिवार को तब बड़ा झटका लगा जब उन्हें कैंसर की बीमारी का पता चला। ये अप्रैल 2013 था। मेडिकल टेस्ट में उन्हें इस बीमारी का पता चला। नरेंद्र ने इसका इलाज शुरू कर दिया लेकिन दवा और ट्रीटमेंट के अलावा एक चीज़ थी जिसने नरेंद्र को इस बीमारी में बहुत फ़ायदा पहुंचाया, वो थी गौरैया। गौरैया के लिए काम करना, उन प्यारे परिंदों का घर में उड़ना, फुदकना और चहचहाना नरेंद्र के लिए ऊर्जा का संचार कर देता था। इन परिंदों की वजह से ही नरेंद्र का परिवार इतनी गंभीर बीमारी में भी सकारात्मक बना रहा। इन गौरैया को देख कर नरेंद्र के अंदर भी जीने की ललक पैदा हुई जिसने उन्हें बीमारी से लड़ने की ताक़त दी। गौरैया मिशन को आगे बढ़ाते हुए नरेंद्र और उनके परिवार ने संतुलन सोसायटी का गठन किया है। उम्मीद है उनकी ये मुहिम और लोगों को प्रेरित करेगी और गौरैया फ़िर से हर घर-आंगन में चहकेगी।
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