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बंदे में है दम

नारी शक्ति की नई गाथा

आपने कभी किसी महिला को पंचर की दुकान में काम करते देखा है? कभी देखा है ट्रक के विशाल पहियों को ठीक करते? शायद नहीं। आपको ये भी लग सकता है कि भला इतने मुश्किल काम औरतें कैसे कर सकती हैं या उन्हें इन कामों को करने की ज़रूरत क्या है। आपके इन सवालों का जवाब है इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट की ये कहानी। कहानी जो ना केवल ये दिखाती और बताती है कि महिलाओं को कमज़ोर समझने, औरतों को किसी दायरे में रखने वाली सोच की बेड़ियां नारीशक्ति के आगे बहुत कमज़ोर हैं। औरतें ऐसे हर बंधन, हर बेड़ियों को तोड़ कर हर दिन आगे बढ़ रही हैं। ये कहानी है मैना सोलंकी की।

मंदसौर की मैना बनी मिसाल 

मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक और पौराणिक शहर मंदसौर की एक महिला आज मिसाल बन चुकी हैं। मंदसौर के नयाखेड़ा बाईपास पर एक पंचर की दुकान है। पास ही एक गैरेज भी है। यही आपको काम करते नज़र आएगी एक महिला। पुरुषों जैसे कपड़े पहने, अकेले ट्रक के बड़े-बड़े टायरों को निकालती, उसे ठीक करती नज़र आएगी। टायर ठीक करते-करते हाथ काले पड़ चुके हैं। चेहरा भी स्याह हो चुका है। उम्र से ज़्यादा संघर्ष से उभरती लकीरें इस चेहरे पर साफ़ नज़र आती हैं। तमाम मुश्किलों और झंझावातों के बाद भी पिछले 35 सालों से इस काम को अपना ईमान, अपना धर्म बना कर जुटी हुई इसी महिला का नाम है मैना सोलंकी। मैना को ट्रकों के टायर के पंचर बनाते देख आज भी लोग हैरत में पड़ जाते हैं।  

 

बचपनकी सीख से संभाली ज़िंदगी

मैना मूलरूप से मंदसौर की ही रहने वाली हैं। मैना के पिता पंचर बनाने का काम करते थे। मां भी पंचर की दुकान में उनका साथ दिया करती थी। इसी वजह से मैना बचपन से ही इस काम को देखती थी। थोड़ी बड़ी हुई तो पिता एक सड़क हादसे में चल बसे। इसके बाद मां ने काम संभाला तो मैना भी साथ देने लगी। लेकिन ये ज़्यादा दिन नहीं चला। मां ने कम उम्र में ही मैना की शादी कर दी। अब मैना राजस्थान चली गईं। पति काम करता था और मैना घर संभालती थी। तीन बेटियों के जन्म के बाद मैना की ज़िंदगी में एक बार फ़िर आफ़त का सैलाब आया। मैना के पति की अचानक ही मौत हो गई। इसके बाद स्थिति दिन-ब-दिन ख़राब होती गई। मैना को ससुराल छोड़कर मायके आना पड़ा। लेकिन यहां भी पहले वाली स्थिति तो थी नहीं। मां मामा के भरोसे रह रही थी। कुछ दिन तो ठीक चला फ़िर घरेलू झगड़े होने लगे। आख़िरकार मैना को वो घर छोड़ना पड़ा।   

नयाखेड़ा बाईपास पर नई शुरुआत 

मैना बताती हैं कि जब उन्होंने अपनी तीन बेटियों के साथ घर छोड़ा था तो उनके पास कुछ भी नहीं था। एक धोबी ने उन्हें एक तगाड़ी दी थी। उसी तगाड़ी के साथ मैना ने काम की शुरुआत की थी। ये शुरुआत बहुत संघर्षों वाली थी। भले ही मैना सालों पहले अपने माता-पिता के साथ काम कर चुकी थी लेकिन अब बात अलग थी। वो युवा थीं, तीन-तीन छोटी बच्चियां थीं और साथ देने के लिए कोई नहीं। मैना को शुरुआत में पंचर बनाने में झिझक होती थी। दूसरी साड़ी में इस तरह के काम करने में परेशानी भी हो रही थी। ट्रकों के पहियों को जैक लगाकर निकालना, फ़िर टायर के पंचर को खोजना और उसे ठीक करना, बहुत मुश्किल और पेचीदगी भरा काम था। इतनी मुश्किल के बाद भी मैना कोई काम नहीं करना चाहती थी। वो तो बस पंचर ही बनाना चाहती थी। शुरुआत धीरे हुई फ़िर काम जमने लगा। लेकिन मुश्किलें तो रोज़ की थी। रोज़ काम नहीं मिल पा रहा था। कभी-कभी तो कई दिनों तक कोई ग्राहक नहीं आता। मैना पुराने दिनों को याद कर बताती हैं कि उनके बच्चे कई-कई दिन केवल पोहा खाकर रहे। कई बार मैना के साथ लोगों ने ग़लत बर्ताव करने की कोशिश की, एक महिला को काम करता देख कइयों ने अनाप-शनाप बातें बनानी शुरू कर दी। ये मैना ही थी जो मजबूत बनी रही।  

 

हर मुश्किल से जीती मैना 

पंचर की दुकान में काम चौबीस घंटे का होता है। पंचर बनवाने गाड़ियां सुबह से लेकर देर रात तक पहुंचती रहती हैं। 35 साल पहले नयाखेड़ा का ये इलाका बिल्कुल वीरान हो जाता था। बिजली भी नहीं रहती थी। उस समय मैना अपने बच्चों के साथ रहती थी और पंचर बनाया करती थी। मैना ने पुरुषों जैसे कपड़े पहनने शुरू कर दिये। वो पहचान छिपाने के लिए सिर पर पगड़ी बांधे रखती थीं। फ़िर उन्होंने हिम्मत जुटा कर ट्रक ड्राइवरों को अपने अंदाज़ में समझाया कि वो महिला हैं और उनसे कायदे से बात करे। काम के बीच मैना को अपने बच्चों की देखभाल भी करनी होती थी। उनके लिए खाना भी बनाना होता था। मैना को काम के दौरान भारी नुकसान भी उठाना पड़ा। एक बार उनके हवा की टंकी फट गई। धमाका ऐसा था कि अगर मैना उसकी चपेट में आती तो बचना मुश्किल होता। मैना बाल-बाल बच गई लेकिन नुकसान बहुत बड़ा था। एक बार ग्रीस मशीन फट गई। मैना बताती हैं कि ऐसे नुकसान से हौसला डगमगा जाता था। लगता था कि काम छोड़ दें क्योंकि एक बड़ी पूंजी फ़िर से मशीन ख़रीदने में लगानी पड़ती थी। भले ही मैना का हौसला डिगा लेकिन उन्होंने जंग नहीं छोड़ी। 

मेहनत से बनाया मक़ाम 

35 साल की मेहनत और कुछ कर दिखाने के जज़्बे ने मैना को वो कामयाबी दिलाई जिसकी वो हक़दार हैं। आज ना केवल वो एक पंचर की दुकान चला रही हैं बल्कि पार्टनरशिप में पास में ही एक गैरेज भी खोल लिया है। अब कई मिस्त्री उनके साथ हैं जो गाड़ियों के इंजन समेत दूसरे पार्ट्स की मरम्मत करते हैं। आसपास के लोग भी बहुत मदद करते हैं। कोई दूर-दराज़ से कोई सामान लाना हो तो ट्रक ड्राइवर ले आते हैं। अच्छी आमदनी हो रही है जिससे घर ठीक से चल रहा है। मैना कहती हैं कि समाज ही नहीं घरवाले भी अपनी बेटियों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते। किसी ना किसी बहाने उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश करते हैं। उनके मुताबिक लड़कियों को हार नहीं माननी चाहिए। ग़लत के विरोध में आवाज़ उठानी चाहिए फ़िर वो अपने घरवाले ही क्यों ना हों। मैना कहती हैं कि अगर कोई लड़की या महिला पंचर बनाने का काम सीखने आएगी तो वो उसे ज़रूर सिखाएंगी। मैना ने बताया कि जब वो परिवार से अलग हो रही थीं तब उनके मामा ने कहा था कि ‘एक ईंट भी लगा लेगी तो मान जाऊंगा। आज मैना ने जब अपना मक़ाम हासिल कर लिया है तो वो मामा की उस बात को भी सकारात्मक रूप से लेती हैं। वो कहती हैं कि अगर मामा से झगड़ा नहीं हुआ होता तो वो शायद अपने पैरों पर कभी खड़ी नहीं हो पाती। मैना सोलंकी एक नज़ीर बन चुकी हैं। ऐसी शख़्सियत जो कभी हार नहीं मानने का हौसला देती है।