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धरती से बंदे में है दम

ऐतिहासिक बावड़ियों को जीवनदान देने वाले ‘पागल साब’

इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट आज एक ऐसी कहानी लेकर आया है जो हर हिंदुस्तानी के लिए एक सबक है। सबक अपनी विरासत को सहेजने, संभालने का, सबक अपने इतिहास को बचाकर रखने का, सबक जीवन का आधार जल को संरक्षित करने का। ये कहानी उस विदेशी इंसान की है जिसकी ज़िद को लोग पागलपन समझ कर उन्हें पागल साब बुलाने लगे थे लेकिन इस शख़्स ने साबित कर दिया कि बदलाव बिना पागलपन के नहीं आता।

सैलानी जो बना वॉटर सोल्ज़र
ये कहानी है आयरलैंड के पर्यावरणविद् कैरोन रॉन्सले की। फ्रांस में जन्मे आयरलैंड के निवासी कैरोन का भारत से बहुत पुराना नाता है। इस देश से उनका नाता उनके दादा ने जोड़ा था। उनके दादा रेलवे में चीफ़ इंजीनियर थे। सालों तक उन्होंने भारत में रह कर रेलवे ट्रैक निर्माण का काम किया। रिटायरमेंट के बाद वो इंग्लैंड लौट गये। कैरोन को वो अक्सर भारत की कहानियां सुनाया करते थे। यहां की विरासत और समृद्ध संस्कृति के बारे में बताया करते थे। कैरोन के दिल-ओ-दिमाग में भारत की गहरी छाप थी। वो भी भारत घूमने का सपना देखा करते थे। बड़े होने पर वो शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने लगे। तकरीबन साल 1994 में वो पाकिस्तान पहुंच गये। यहां क़रीब 20 साल तक उन्होंने अलग-अलग स्कूलों में पढ़ाया करते थे। साल 2014 में उन्होंने भारत का रुख़ किया। वो ना केवल अलग-अलग राज्यों में घूम रहे थे बल्कि पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर भी ध्यान दे रहे थे। वो एक खानाबदोश की ज़िंदगी जी रहे थे। राजस्थान पहुंचने पर वो जैसलमेर के हाडा गांव में रुक गये। यहां भीषण गर्मी और पानी की कमी को देखते हुए कैरोन ने अपने अनुभव का इस्तेमाल करने का फ़ैसला किया। उन्होंने इस रेगिस्तानी ज़मीन पर उन्होंने पेड़-पौधों से भरा एक बागीचा तैयार करने का निश्चय किया। इसमें उन्होंने स्थानीय लोगों की मदद ली और एक तय ज़मीन पर एक हज़ार से ज़्यादा पेड़ पौधे लगा कर एक छोटा सा जंगल तैयार कर डाला। ये जैसलमेर की ज़मीन पर किसी चमत्कार से कम नहीं था। इससे ना केवल इलाक़े की रंगत बदल गई बल्कि भूजल स्तर में भी इज़ाफ़ा हुआ।

जैसलमेर से जोधपुर पहुंचे कैरोन
जैसलेमेर के हाडा गांव में अच्छा खासा जंगल तैयार करने के बाद कैरोन एक बार फिर चल पड़े। इस बार उनका ठिकाना था जोधपुर। जब कैरोन जोधपुर पहुंचे तो हैरान रह गये। यहां के जल संकट ने उन्हें झकझोर दिया। रेगिस्तानी इलाक़ों के साथ-साथ शहरी इलाक़ों में भी पानी का भयंकर संकट था। उन्होंने ये भी देखा कि इस संकट से निपटने के लिए पुराने ज़माने से ही कई और शानदार उपाय किये गये हैं लेकिन आज उन उपायों को ना केवल लोग नज़रअंदाज़ कर चुके हैं बल्कि उन्हें बर्बाद भी कर दिया गया है। बस फिर क्या था। भारत घूमने आए इस सैलानी ने ख़ुद को वॉटर सोल्ज़र में बदल डाला।

परंपरागत जल स्त्रोतों के काया कल्प का संघर्ष
कैरोन ने पानी की किल्लत से निपटने के जिस तरीके पर ज़ोर दिया वो पहले से ही यहां मौजूद थे। ये थे प्राचीन बावड़ियां। जब राजस्थान में ये शहर बसाये गये थे तब पानी की उपलब्धता के लिए ये बेहद गहरी और सीढ़ीदार बावड़ियां भी बनाई गई थीं। सालों भर इन बावड़ियों में पानी रहता था। सीढ़ियां होने की वजह से लोग गर्मी के दिनों में जलस्तर नीचे होने पर भी आसानी से पानी ले पाते थे। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला लोगों ने बावड़ियों का इस्तेमाल बंद कर दिया। इतना ही नहीं इन बावड़ियों को लोगों ने कूड़ेदान बना दिया। धीरे-धीरे ये बावड़ियां कूड़े का ढेर बन गई। नशेड़ियों और जुआरियां का अड्डा बन गई। नतीजा ये हुआ कि ये सुंदर बावड़ियां बदबू और गंदगी से भर गईं। कैरोन को फ़ौरन समझ में आ गया कि अगर इन बावड़ियों को फिर से ज़िंदा कर दिया जाए तो शहर में पानी का संकट कम किया जा सकता है। लेकिन बावड़ियां जिन हालातों में पहुंच चुकी थी, उन्हें पुनर्जीवित कर पाना अकेले कैरोन के लिए संभव नहीं था। कैरोन ने स्थानीय प्रशासन से संपर्क साधना शुरू किया। कई अधिकारियों से फरियाद की, नगर निगम के चक्कर काटे लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने कई स्वयंसेवी संस्थाओं से बात की। कइयों ने हामी भरी लेकिन बावड़ियों की हालत देखकर क़दम पीछे खींच लिये।

ख़ुद से शुरू की सफ़ाई
कैरोन की मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। ज़िद के पक्के कैरोन भी कहां पीछे हटने वाले थे। उन्होंने कुछ लोग जुटाए और ख़ुद ही बावड़ी की सफ़ाई में जुट गये। 70 साल की उम्र में वो 6-6 घंटे बावड़ी की गंदगी साफ़ कर रहे थे। इसी बीच राहत भरी ख़बर आई। मेहरानगढ़ फोर्ट ट्रस्ट ने कैरोन के जज़्बे को देखते हुए इस अभियान में साथ देने का एलान किया। फंड, पानी निकालने की मोटर और कई वॉलेंटियर्स कैरोन की मदद के लिए भेजे गये। जब काम आगे बढ़ा तो स्थानीय लोग भी अपना हाथ बंटाने लगे। देखते ही देखते बावड़ियों की रंगत बदलने लग गई। साल 2020 में उन्होंने शहर की 188 साल पुरानी ईदगाह बावड़ी का काया-कल्प कर डाला। अब शहर की लगभग सभी बावड़ियों का स्वरूप पहले जैसा अद्भुत और सुंदर हो चुका है। उनकी भव्यता लौट आई है और साथ ही इन बावड़ियों में मौजूद साफ़ पानी में हमारे देश की विरासत का प्रतिबिम्ब भी झलक रहा है।
और ये सब केवल और केवल सिर्फ़ एक शख़्स की वजह से संभव हो पाया है जिसका नाम है कैरोन रॉन्सले। कैरोन को बावड़ियों से प्यार हो गया है। वो दिन-रात बावड़ियों के बारे में सोचते रहते हैं। उनकी देखभाल, उसकी सफ़ाई, पानी का स्तर। उनके इसी प्यार और जज़्बे की वजह से लोगों ने उनका नाम पागल साब रख दिया। और वाकई अगर देश में कैरोन जैसे कुछ पागल और हो जाएं तो हमारे देश की विरासत तो बचेगी ही साथ-साथ पर्यावरण और जल संरक्षण भी हो सकेगा।