अंग्रेजी कहावत है लाफ्टर इज़ द बेस्ट मेडिसिन यानी हंसी सबसे अच्छी दवा है। हंसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना, ठहाके लगाना एक स्वस्थ इंसान के जीवन का हिस्सा हैं। हंसने से हम कई तरह की बीमारियों से दूर रह सकते हैं। मानसिक तनाव, डिप्रेशन, नींद ना आने जैसी समस्याओं में ये इलाज बहुत कारगर है। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट जिसकी कहानी लेकर आया है वो हंसी और ठहाके बांट कर लोगों के इलाज में मदद पहुंचा रही हैं। हमारी आज की कहानी है शीतल अग्रवाल की। शीतल जो जोकर बन कर लोगों को जीना सिखा रही हैं।
जोकर जो कर रहे हैं इलाज में मदद
दिल्ली के चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में अक्सर आपको कुछ जोकर नज़र आएंगे। कभी बच्चों के वार्ड में, कभी गलियारों में, कभी आईसीयू में, ये जोकर अस्पताल में भर्ती बच्चों को, उनके माता-पिता को और तो और अस्पताल के कर्मचारियों के साथ हंसी-ठिठोली करता नज़र आ जाएगा। रंगीन बाल, हैट और नाक लगाए ये जोकर कभी गेंद से, कभी गुब्बारे से तो कभी अपने हाव-भाव से मरीज़ों को हंसाते-गुदगुदाते रहते हैं। यही है इनकी लाफ्टर थिरेपी। एक ऐसी थिरेपी जो सैकड़ों मरीज़ों को स्वस्थ होने में मदद पहुंचा रही है। इसे मेडिकल क्लाउनिंग भी कहा जाता है।
शीतल का क्लाउनसेलर्स
दिल्ली के अस्पतालों में जोकर का रूप धर कर बीमारों में हंसी के हंसगुल्ले बांटने वाले ये हैं क्लाउनसेलर्स और इस दिलचस्प काम की शुरुआत करने वाली हैं शीतल अग्रवाल। मूल रूप से हरियाणा के हिसार की रहने वाली शीतल दिल्ली में ही पली-बढ़ी हैं। उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र विषय में ग्रेजुएशन किया। इसके बाद उन्होंने जेएनयू से मास्टर्स की डिग्री हासिल की। फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी से एमफिल किया। कई सामाजिक कार्यों और स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़ कर काम कर रही शीतल की ज़िंदगी में नया मोड़ आया साल 2016 की शुरुआत में जब वो एक कार्यक्रम में शामिल होने अहमदाबाद गई थीं। कार्यक्रम के दौरान उनकी मुलाक़ात धरा नाम की महिला से हुई। धरा ने ख़ुद का परिचय एक मेडिकल क्लाउन के तौर पर दिया। इस शब्द ने शीतल को जैसे ख़ुद की तरफ़ खींच लिया। उन्होंने अब तक सर्कस के जोकर देखे थे। विदेशों में सड़क पर परफ़ॉर्म करने वाले क्लाउन देखे थे लेकिन मेडिकल क्लाउन उनके लिए नया था। उन्होंने इंटरनेट पर इसके बारे में जानकारी हासिल की। वो धरा से भी लगातार बात करने लगीं। धरा गुजरात के वडोदरा में मेडिकल क्लाउन का काम कर रही थीं। शीतल उनसे अक्सर पूछा करती थी कि क्या वो दिल्ली में भी ये काम करेंगी या कोई और दिल्ली में इसे शुरू कर रहा है। तब शीतल बस मेडिकल क्लाउन को काम करते देखना चाहती थी लेकिन बार-बार उनके पूछने पर धरा ने उन्हें कहा कि वो ख़ुद क्यों नहीं इसे दिल्ली में शुरू करती हैं। ये बात शीतल के लिए लाइफ चेंजिंग थी। शीतल बताती हैं कि वो हमेशा से अंतर्मुखी रहीं। बचपन से ही वो कम बातें करती थीं। लोगों से भी मिलना-जुलना बहुत सीमित था। ऐसे में ख़ुद मेडिकल क्लाउनिंग करने के बारे में वो सोच भी नहीं पा रही थीं। लेकिन धरा के कहने पर उन्होंने तय किया कि वो ख़ुद ये काम करेंगी।
शुरू हुआ क्लाउनसेलर्स
एक बार ठान लेने के बाद शीतल पीछे नहीं हटीं। उन्होंने तय किया कि वो सरकारी अस्पतालों के मरीज़ों के साथ काम करेंगी इसलिए उन्होंने दिल्ली सरकार से संपर्क किया। शीतल ने अधिकारियों को अपनी योजना बताई। अधिकारियों का साथ मिला और उन्होंने शीतल की बात चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के तत्कालीन डायरेक्टर डॉ अनूप मोहता से करवा दी। डॉ अनूप मोहता ने भी शीतल को इसकी मंज़ूरी दे दी। उन्होंने कहा कि इससे फ़ायदा हो ना हो, नुकसान तो नहीं होगा। इसके बाद शीतल ने वॉलेंटियर्स भी जुटा लिये लेकिन तब वर्कशॉप नहीं हो पाई थी। शीतल ने अपनी पहली वर्कशॉप 9 जुलाई 2016 को चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में की।
कम समय में दिखने लगा असर
अब शीतल अपनी टीम के साथ हर हफ़्ते अस्पताल जाने लगीं। अस्पताल में भर्ती बच्चों के साथ वर्कशॉप करने लगीं। उनकी ये वर्कशॉप बहुत कम समय में अपना असर दिखाने लगी। बीमार बच्चों के चेहरे पर खिलखिलाहट आने लगी। बच्चे अपने सामने जोकर को देखकर खुश हो जाते। गुब्बारों और गेंद के साथ वो खेलने लगे। जो बच्चे खाना नहीं खाते थे उन्हें गुब्बारे के बदले खाना खाने के लिए प्रेरित किया गया। अब अस्पताल में भर्ती बच्चों के घरवालों के साथ-साथ डॉक्टरों को भी क्लाउनसेलर्स के अस्पताल आने का इंतज़ार रहने लगा। ये शीतल और उनकी टीम के लिए बहुत उत्साहवर्धक था।
इलाज और लाफ्टर का डबल डोज़
शीतल बताती हैं कि एक बार एक बच्चे के पिता ने बताया कि उनका बच्चा हफ्ते बाद हंसा। एक के पिता ने कहा कि इतने दिनों से हमारा बच्चा अस्पताल में है लेकिन आज पहली बार वो किसी बात पर प्रतिक्रिया दे रहा है। अब मुझे भरोसा है कि वो जल्दी ठीक हो जाएगा। शीतल को भी ये लगने लगता था कि बच्चे में सुधार दिखाई देने लगा है। दरअसल बच्चा हो या बड़ा, अगर खाना सही हो जाए, मानसिक तनाव कम हो जाए तो बीमारी पर आधी जंग तो ऐसे ही जीती जा सकती है, बाक़ी आधा डॉक्टरों का इलाज और दवाएं कर देंगी। शीतल ने एक वाकया सुनाया। अस्पताल में एक बच्ची कोमा में पड़ी थी। बच्ची के साथ तीमारदार के तौर पर उसकी मां थी। शीतल ने बच्ची की मां के साथ ही वर्कशॉप शुरू कर दिया। जब मां को अच्छा लगा तो उन्होंने शीतल से कहा कि आप मेरी बच्ची के साथ ये वर्कशॉप कीजिए वो भी जल्दी ठीक हो जाएगी। पहले तो शीतल को लगा कि कोमा में पड़ी बच्ची के साथ कैसे वर्कशॉप की जाए लेकिन उन्होंने इसे किया और इसका असर भी हुआ। एक दो बार में ही बच्ची अपनी एक उंगली हिलाने लगी और हफ्ते-डेढ हफ्ते में वो चलने लग गई। एक बार उन्हें डॉक्टरों ने बताया कि जिन बच्चों को क्लाउन थिरेपी दी जा रही है उन्हें इलाज के दौरान एनेस्थेसिया के कम डोज़ देने पड़ रहे हैं।
तीमारदार और अस्पताल स्टॉफ के साथ वर्कशॉप
शीतल और उनकी क्लाउनसेलर्स टीम के काम का असर अब अस्पताल प्रबंधन को भी अच्छे से समझ आने लगा था। एक बार उन्होंने शीतल को बुलाकर बच्चों के ICU में जाकर वर्कशॉप करने की सलाह दी। ख़ास बात ये है कि ये वर्कशॉप उन्होंने बच्चों के लिए नहीं बल्कि वहां मौजूद उन बच्चों की मांओं के लिए करने कहा जो अपने बच्चों को इस हालत में देखकर बेहद मायूस और दुखी थीं। शीतल ने वर्कशॉप की और उन महिलाओं के मुरझाए चेहरे खिल उठे। शीतल की टीम अस्पतालकर्मियों के साथ भी वर्कशॉप करती है। अस्पताल में काम करना अपने आप में बहुत तनावपूर्ण रहता है। ऐसे में शीतल की क्लाउन थिरेपी की वर्कशॉप उनके लिए भी कारगर साबित हुई।
क्लाउनसेलर्स के लिए छोड़ दी नौकरी
बात साल 2018 की है। अब तक शीतल के क्लाउनसेलर्स को दो साल हो चुके थे। शीतल को ना केवल इसमें मज़ा आ रहा था बल्कि उन्हें लगने लगा था कि लोगों को इसकी बहुत ज़रूरत है। अब तक वो ये काम पार्ट टाइम के तौर पर कर रही थीं। वो समाजशास्त्र पढ़ा रही थीं। उन्हें पढ़ाना बहुत अच्छा लगता था लेकिन क्लाउनसेलर्स के लिए उन्होंने अपना करियर दांव पर लगा दिया। उन्हें लगा कि नौकरी के साथ क्लाउनसेलर्स का काम हफ़्ते में केवल एक या दो दिन हो सकता है। जब उन्होंने नौकरी छोड़ने का फ़ैसला किया तो कई लोगों ने आपत्ति जताई। उनके अच्छी ख़ासी नौकरी छोड़ने के फ़ैसले को ग़लत बताया। ऐसे में शीतल के घरवाले उनकी मजबूती बने। मां-पापा ने पूरा साथ दिया। पिता ने समझाया कि जो मन में आए करो। कामयाब हो तो अच्छी बात है लेकिन ना तो नाकामी से डरना और ना ही दूसरों की बात से परेशान होना। अपने दृढ निश्चय और घरवालों के साथ की बदौलत शीतल ने क्लाउनसेलर्स को आगे बढ़ाया। कई बार तो शीतल की मां, उनकी भतीजी-भतीजे ने भी अस्पताल में जाकर क्लाउनिंग की।
कोरोनाकाल में बदला काम करने का तरीका
कोरोना काल में अस्पतालों में प्रवेश बंद हो गया। ये शीतल के लिए भी नया चैलेंज था लेकिन दूसरों को खुशियां बांट रही शीतल भला इस चुनौती से कहां पीछे हटने वाली थीं। अब वो और उनकी टीम उन जगहों पर जाने लगी जहां प्रवासियों को रखा गया था। यहां वो महिलाओं और बच्चों के साथ क्लाउनिंग करने लगी। बीमारी और भविष्य के डर से पीड़ित ये लोग अपने बीच क्लाउनसेलर्स को देखकर खुश हो गये। वर्कशॉप ने बच्चों को अवसाद से बाहर आने में बहुत मदद की। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान उन्होंने कई राज्य सरकारों को क्लाउन थिरेपी से जुड़े प्रस्ताव भेजे। उन्हें मेघालय की सरकार से बुलावा आया। शीतल ने मेघालय के एक अस्पताल में अपनी वर्कशॉप की।
शीतल आज भी कई अस्पतालों के साथ काम कर रही हैं। इसके अलावा वो अलग-अलग कार्यक्रमों में भी अपने वर्कशॉप आयोजित करती हैं। शीतल हमें ये सिखाती हैं कि अगर इंसान हंसी को अपना दोस्त बना ले तो कई परेशानियों पर वो आसानी से जीत हासिल कर सकता है। दरअसल शीतल हमें जीना सिखाती हैं।
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