“एक अंगूठाछाप इंसान अपने समाज को क्या दे सकता है ?
समाज के बदलाव में क्या भूमिका अदा कर सकता है ?
जिस शख्स का शिक्षा से कोई वास्ता नहीं रहा वो शिक्षा के बारे में क्या बता सकता है ?
सवाल कई हैं लेकिन जवाब सिर्फ़ एक
वो जवाब है शिवदसिया कुंवर
स्टोरी इंडिया प्रोजेक्ट की पहली कहानी उसी शिवदसिया कुंवर की।”
बिहार के सारण ज़िले के कोहबरवां गांव में रहने वाली शिवदसिया आज सिर्फ़ अपने गांव या ज़िले के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए एक मिसाल बन चुकी हैं। 70 पतझड़ पार कर चुकी शिवदसिया अनपढ़ हैं। गांव में स्कूल था नहीं तो पढ़ती कहां ? फिर शादी के बाद ज़िंदगी ही बदल गई। घर-बार के कामकाज में ऐसी उलझी कि पढ़ाई-लिखाई के बारे में सोच पाना भी मुमकिन नहीं हुआ।
ज़िंदगी की जद्द-ओ-जहद से जूझने के दौरान शिवदसिया को शिक्षा की अहमियत का पता चल चुका था। ख़ुद के अनुभवों से वो जान चुकी थीं कि बच्चों के लिए शिक्षा कितनी ज़रूरी है। गांव-समाज के विकास के लिए शिक्षा कितनी ज़रूरी है।
शिवदसिया के गांव में अब तक कोई स्कूल नहीं था। बच्चों को मीलों का रास्ता तय कर दूसरे गांव जाना पड़ता था। इसी वजह से कई बच्चे पढ़ाई से महरूम रह जाते थे। पढ़ाई ना कर पाने वाले बच्चों में ज़्यादातर लड़कियां थीं। शिवदसिया इन हालातों को बदलना चाहती थी। वो चाहती थी कि गांव के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले।
शिवदसिया की शिक्षाक्रांति
इसी बीच गांव में स्कूल खोलने को लेकर सुगबुगाहट शुरू हुई। एक संगठन से जुड़े लोगों ने गांव के बड़े-बुज़ुर्गों से स्कूल खोलने की बात की। लोग राज़ी तो हुए लेकिन सवाल उठा कि स्कूल खुले तो कहां खुले। पंचायत की ज़मीन मिली नहीं। गांव के ज़्यादातर लोग ग़रीबी में गुज़र-बसर कर रहे थे। कोई भी स्कूल के लिए अपनी ज़मीन देने के लिए तैयार नहीं था।
और यही वो वक़्त था जब बच्चों की शिक्षा का सपना देख रही शिवदसिया आगे आई। शिवदसिया की भी माली हालत ख़राब थी। पति गुजर चुके थे। थोड़ी बहुत ज़मीन बची थी जिससे गुज़र-बसर हो रही थी। लेकिन शिवदसिया को अपना नहीं गांव के उन बच्चों का भविष्य नज़र आ रहा था जिन्हें स्कूल की ज़रूरत थी।
शिवदसिया ने अपनी उस ज़मीन को जो ना केवल उसके पति की आख़िरी निशानी थी बल्कि उसकी रोज़ी-रोटी का साधन भी थी, उस ज़मीन को बिना सोचे स्कूल के लिए दान करने का फ़ैसला कर लिया। उसके इस फ़ैसले से गांव के लोग हैरान रह गए। कइयों ने उसे समझाने की कोशिश भी की लेकिन शिवदसिया अडिग रही।
शिवदसिया ने जलाई शिक्षा की मशाल
शिवदसिया के संकल्प ने गांव में नई क्रांति की शुरुआत कर दी। अपनी इकलौती ज़मीन स्कूल के लिए दान कर शिवदसिया लोगों के लिए मिसाल बन गई। उसके बाद गांव के कई लोगों ने अपनी-अपनी ज़मीन का हिस्सा स्कूल निर्माण के लिए दान कर दिया। आज उस ज़मीन पर एक शानदार स्कूल चल रहा है जहां सिर्फ़ उसी गांव के नहीं बल्कि आसपास के गांवों के बच्चे भी शिक्षा हासिल कर रहे हैं।
शिवदसिया के नाम से गांव की पहचान
आज जब एक इंच ज़मीन के लिए भाई-भाई के बीच तलवारें खींच जाती हैं, ऐसे वक़्त में स्कूल के लिए अपनी पूरी ज़मीन दान देने वाली शिवदसिया कुंवर का नाम अब गांव का बच्चा-बच्चा जानता है। उसके शिक्षा के प्रति संकल्प और समर्पन को देख कर उसे स्कूल की कमिटी में भी शामिल किया गया। स्कूल के शिलापट्ट पर उसका नाम भी अंकित है। अब तो स्कूल तक जाने वाली सड़क का नाम भी शिवदसिया कुंवर के नाम पर करने का विचार किया जा रहा है।
शिवदसिया के इस संकल्प को कई सम्मानों से नवाज़ा भी गया है। सारण गौरव और अपराजिता सम्मान शिवदसिया कुंवर के त्याग और समाज के प्रति उनके समर्पण को सुशोभित कर रहे हैं।
लेकिन हक़ीकत तो यही है कि शिवदसिया की चाहत कभी भी ये नाम और ये सम्मान नहीं रहे। उनकी चाहत तो आज इस बुलंद इमारत में तब्दील हो चुकी है जहां से निकल रही शिक्षा की अलख पूरे गांव और समाज को रोशन कर रही है।
शिवदसिया की शिक्षा क्रांति की ये कहानी हमें प्रभात किरण हिमांशु ने भेजी है।
Shandar story…samaj ko aage badhane ke sarahiye pahal…