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बंदे में है दम

एक शिक्षक के धर्म की कहानी

मध्यप्रदेश में बैतूल के एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे सड़क किनारे खड़े दिख जाएंगे। स्कूल की ड्रेस में, बस्ता टांगे। वो इंतज़ार करते हैं अपनी एक शिक्षक का। तय समय पर एक महिला स्कूटी पर आती हुई नज़र आएंगी। वो इन बच्चों के पास रुकती हैं। उन्हें अपनी स्कूटी पर बिठाती हैं और फ़िर चल पड़ती हैं स्कूल की ओर। बैतूल के भैंसदेही की ये तस्वीर बिल्कुल आम है। हो भी क्यों ना। ये कोई अभी की बात तो है नहीं। पिछले 7 सालों से चला आ रहा सिलसिला है। ये तस्वीर एक बदलाव की बड़ी दास्तां है। एक शिक्षक के धर्म की कहानी है। देशप्रेम के जज़्बे का क़िस्सा है।

एक नज़ीर हैं अरुणा महाले

अपनी स्कूटी पर बच्चों को बिठा स्कूल ले जाने वाली इन महिला शिक्षक का नाम है अरुणा महाले। अरुणा बैतूल में भैंसदेही के धुड़ियां गांव के सरकारी स्कूल में तैनात हैं। शिक्षा को पेशा नहीं धर्म मानने वाली अरुणा के जीवन का मक़सद ही ज्ञान का प्रकाश फैलाना है। अरुणा के सामने तब सबसे बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई जब उनका ये स्कूल बंद होने की कगार पर आ खड़ा हुआ था। दरअसल इस स्कूल में बच्चों का ड्रॉप आउट रेट बहुत ज़्यादा था। बैतूल का ये इलाक़ा बहुत दुर्गम है। थोड़ी दूर का सफ़र भी आसान नहीं है। आने-जाने के लिए साधन भी बहुत मुश्किल से मिलते हैं। ये स्थिति स्कूली बच्चों के लिए भी बहुत कष्टप्रद है। क़रीब सात साल पहले की बात है। स्कूल में बच्चों का आना कम हो गया। हालत ये हो गई कि पूरे स्कूल में केवल 10 बच्चे बचे थे।

शिक्षा विभाग स्कूल में बच्चों की इतनी कम संख्या को देखकर स्कूल बंद करने का विचार करने लगा लेकिन ये स्थिति अरुणा को बर्दाश्त नहीं हुई। उन्होंने बच्चों के स्कूल छोड़ने की वजह का पता लगाया और फ़िर बच्चों के घरवालों को इस बात के लिए तैयार किया कि वो अपने बच्चों को फ़िर से स्कूल भेजें। उन्होंने ख़ुद बच्चों को अपनी स्कूटी से स्कूल लाने और फ़िर छुट्टी के बाद घर तक छोड़ने का काम शुरू कर दिया। अरुणा के इस अभियान ने असर दिखाना शुरू किया। अरुणा तो कुछ ही बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से घर तक ला और छोड़ सकती थीं लेकिन उनके इस समर्पण को देख बच्चों के माता-पिता ने भी उनका साथ दिया और बच्चों को स्कूल ले जाने की व्यवस्था की। नतीजा ये हुआ कि जहां केवल 10 बच्चे बचे थे वहां 85 से ज़्यादा बच्चे हो चुके हैं और जिस स्कूल को शिक्षा विभाग ने बंद करने का फ़ैसला कर लिया था अब उस फ़ैसले को वापस ले लिया गया है।

बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पण

बच्चों को स्कूल तक लाना और फ़िर घर तक पहुंचाना अरुणा के लिए भी आसान नहीं है। आज जब पेट्रोल की क़ीमत आसमान छू रही है तब भी अरुणा कभी अपनी तय राह से नहीं डिगीं। बच्चों को उनके घर से लेने के लिए उन्हें मुख्य मार्ग से अलग रास्ते पर जाना होता है। उबड़-खाबड़ रास्तों से होती हुई वो बच्चों को पिक करती हैं और फ़िर छुट्टी होने पर उन्हें उनके घर तक छोड़ती हैं। वो क़रीब 20 बच्चों को स्कूल लाती और घर पहुंचाती हैं। इसके लिए उन्हें कई फेरे भी लगाने पड़ते हैं। इसमें उनका समय और पैसा दोनों ख़र्च होता है लेकिन अरुणा ने कभी भी इसकी परवाह नहीं की।

शिक्षा की सामग्रियां अपने ख़र्च पर

बैतूल का ये आदिवासी इलाक़ा बहुत पिछड़ा हुआ है। ग़रीबी भी यहां की बड़ी समस्या है। ये ग़रीबी और पिछड़ापन यहां के बच्चों की शिक्षा की राह में बहुत बड़ा रोड़ा है। अरुणा ने इस रोड़े को हटाने के लिए भी जी-जान से कोशिश की। जिन बच्चों के पास कॉपी-क़िताब, पेंसिल या दूसरी पढ़ाई की चीज़ें नहीं होती हैं, अरुणा ख़ुद के पैसे से ख़रीदकर उन बच्चों को ये सामान मुहैया करवाती हैं। मक़सद बस एक ही है कि बच्चों की पढ़ाई ना रूके।
इस देश को अरुणा जैसे और शिक्षकों की ज़रूरत है।