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धरती से

प्रकृति की ‘बसंती’ हवा

एक सामान्य इंसान, परिस्थितियों का मारा इंसान कैसे अपनी दृढइच्छाशक्ति के दम पर मिसाल बन जाता है ये बसंती देवी को देख कर, उनके बारे में पढ़ और जानकर आसानी से समझा जा सकता है। बसंती देवी के इसी जज़्बे ने ना केवल उन्हें देश के प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत कराया है बल्कि देश और समाज में भी व्यापक बदलाव का संदेश दिया है। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट पर कहानी इसी दृढनिश्चियी महिला की, कहानी बसंती देवी की।

समाज के लिए समर्पित जीवन
बसंती देवी जिन्हें लोग बसंती बहन के नाम से जानते और पुकारते हैं, उनका जीवन पूरी तरह से समाज के लिए समर्पित है। बसंती देवी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ की रहने वाली हैं। केवल 12 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई थी। ये शादी उनके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव लाने वाली थी। शादी के महज दो साल बाद ही उनके पति का निधन हो गया। 14 साल की उम्र में जब आम तौर पर दुनियादारी की समझ भी नहीं हो पाती है, बसंती देवी जीवन के सबसे बड़े सदमे को झेल रही थीं। ससुरालवालों ने पति की मौत के लिए बसंती देवी को जिम्मेदार बताना शुरू कर दिया। सास ने ना केवल बातचीत बंद कर दी बल्कि खाना-पीना भी देना बंद कर दिया। इस मुश्किल घड़ी में बसंती का साथ उनके पिता ने दिया। वो वापस अपने मायके आ गईं। यहां आकर वो पढ़ाई करने लगीं। पहले मुश्किल से अपना नाम लिखने वाली बसंती ने 12वीं पास कर ली। ये शिक्षा उनके जीवन के लिए बहुत अहम साबित हुई। इसी बीच उनकी मुलाक़ात समाजसेविका और गांधीवादी राधा जी से हुई। राधा जी के विचारों ने उनके जीवन में नया प्रकाश डाला। उन्हें अपने जीवन का मक़सद नज़र आने लगा। समाज के प्रति कुछ करने का जज़्बा पैदा हुआ। उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। वो अब कौसानी के आश्रम में रहने लगी। यहां उन्होंने सिलाई-कढ़ाई और बिनाई भी सीखी। उन्होंने आश्रम में रह कर लड़कियों की शिक्षा पर ज़ोर दिया। उनके प्रयासों का परिणाम ये रहा कि लक्ष्मी आश्रम ने क़रीब 30 स्कूलों की शुरुआत की। उन्होंने ख़ुद भी बालवाड़ी में 20 साल तक बच्चों को पढ़ाया। आज उनकी पढ़ाई कई बच्चियां डॉक्टर, नर्स, शिक्षक बन चुके हैं और समाज के प्रति अपनी भूमिका निभा रही हैं।

बाल विवाह के ख़िलाफ़ बिगुल
बसंती देवी ने महिला सशक्तिकरण की सबसे मजबूत शुरुआत कर दी थी। ये शुरुआत थी उन्हें शिक्षित बनाने की। तो इसके साथ-साथ उन्होंने बाल विवाह की कुरीति के ख़िलाफ़ भी बिगुल फूंक दिया। ख़ुद बाल विवाह का दर्द झेल चुकी बसंती देवी जानती थी कि बच्चियों को इस कुरीति से बचाना कितना ज़रूरी है। उनके जीवन को सही दिशा देने के लिए बाल विवाह को रोकना ज़रूरी था इसलिए बसंती देवी ने अभियान छेड़ दिया। वो घर-घर जाकर लोगों से बात करने लगीं। उन्हें बाल विवाह नहीं कराने के लिए मनाने लगीं। लोगों के बीच जागरूकता फैलाने लगीं। बसंती देवी के इस अभियान ने असर दिखाना शुरू किया। कई लोगों ने उनसे प्रभावित होकर अपनी बच्चियों की शादी कम उम्र में नहीं की।

महिला उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सशक्त आवाज़
बसंती बहन ने महिलाओं की साक्षरता के साथ-साथ उनके उत्पीड़न को रोकने के लिए भी क़दम उठाए। महिलाओं को घरेलू उत्पीड़न, दहेज और दूसरी तरह की प्रताड़ना के विरुद्ध आवाज़ उठाने की प्रेरणा दी। वो गांव-गांव जाती और महिलाओं से मिलकर इस समस्या पर बात करती। वो महिलाओं की बातें, उनका दुख-दर्द साझा करती और फिर उन्हें इन परेशानियों से निपटने के उपाय समझाती। उन्होंने सैकड़ों गांवों की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में मदद की। सिलाई-कढ़ाई के अलावा उन्हें कई तरह की ट्रेनिंग दिलवाई ताकि वो आर्थिक रूप से मजबूत बन सकें। बसंती बहन की इस मुहिम का असर वहां की पंचायतों पर साफ तौर पर नज़र आता है। उन्होंने नशे की लत के ख़िलाफ़ भी जागरूकता अभियान चलाया।

कोसी नदी का काया-कल्प
अख़बार की एक ख़बर ने बसंती देवी को कोसी नदी के संरक्षण के लिए काम करने की प्रेरणा दी। दरअसल वो कुछ समय के लिए देहरादून में रह कर काम कर रही थीं लेकिन उनका मन वहां नहीं रमा। 2002 में वो कौसानी लौट आईं। कुछ दिनों बाद उन्होंने अख़बार में ख़बर पढ़ी की उत्तराखंड की कोसी नदी अगले एक दशक में ख़त्म हो जाएगी। ये ख़बर बसंती बहन के लिए चौंकाने वाली थी। उन्होंने पढ़ा कि पहाड़ों पर तेज़ी से हो रहे वनों के कटाव और भूस्खलन कोसी नदी को पूरी तरह से सुखा देंगे। इस ख़बर को पढ़कर बसंती बेचैन हो उठी। उन्हें लगा कि अगर तुरंत कुछ नहीं किया गया तो हालात बिगड़ जाएंगे। उन्होंने फ़ैसला किया कि इस काम की शुरुआत वो ख़ुद करेंगी। ठान लिया कि अब पेड़ों की कटाई वो नहीं होने देंगी। इसके लिए सबसे पहले उन्होंने गांव की महिलाओं को जागरूक करना शुरू किया। वो जंगल के उन हिस्सों में जाने लगी जहां महिलाएं लकड़ियां काटने जाती थी। वो महिलाओं को समझाती की हरे पेड़ ना काटा करें। उन्हें बताती कि जंगल कितनी तेज़ी से ख़त्म हो रहे हैं और कोसी नदी पर इसका क्या ख़तरा है। दरअसल गांव के हर घर में टनों लकड़ियां जमा रहती थी। हर महिला रोज़ाना क़रीब 3 गट्ठर लकड़ी काट कर ले जाती थी। घर में ये लकड़ियां जमा कर दी जाती थी। लोगों को लगता था कि आड़े वक़्त में ये लकड़ियां काम आएंगी लेकिन होता ये था कि लकड़ियों का बड़ा हिस्सा सड़ कर बर्बाद हो जाता था। धीरे-धीरे लोगों को ये बात समझ में आने लगी और उन्होंने हरे पेड़ काटने बंद कर दिये। इस अभियान में वन विभाग ने भी बसंती का साथ दिया। विभाग ने गांववालों को जंगल से सूखे पेड़ और लकड़ियां जाने की अनुमति दे दी। बसंती का ये आंदोलन इलाक़े के दूसरे हिस्सों तक भी पहुंच गया और असर ये हुआ कि कोसी नदी पर मंडरा रहा ख़तरा कम हो गया। पूरी कोसी घाटी में पेड़ों की कटाई पर भी पूरी तरह से पाबंदी लगा दी गई। इसी दौरान उन्होंने महिलाओं से बात कर महिला संगठन बनाने की रूपरेखा तय की। उन्होंने कोसी को बचाने के लिए 15 दिन की पदयात्रा की। महिलाओं के साथ कोसी का पानी हाथ में प्रण लिया कि कोसी को हर क़ीमत पर बचाएंगे।

जंगल बचाने और बढ़ाने की प्रेरणा
बसंती बहन ने लोगों को ना सिर्फ़ जंगल को बचाने की सलाह दी बल्कि जंगल को बढ़ाने के लिए भी प्रेरित किया। उन्होंने लोगों को बांज के पेड़ का महत्व समझाया। बसंती बहन से प्रेरित होकर लोगों ने गांव के आसपास पेड़ लगाने शुरू कर दिये। एक से दूसरे गांव तक ये जागरूकता अभियान चला और बढ़ता चला गया। इस अभियान ने भी वनों को बचाने और बढ़ाने में बड़ी भूमिका अदा की। उन्होंने टिहरी बांध योजना के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाई थी।

बसंती बहन की झोली में प्रतिष्ठित सम्मान
समाज और देश के लिए अपना पूरा जीवन खपाने वाली बसंती बहन बेहद सादगी के साथ रहती हैं लेकिन वो महिला सशक्तिकरण और नारी शक्ति का जबरदस्त उदाहरण हैं। बसंती जी को साल 2016 में केंद्र सरकार ने नारी शक्ति सम्मान से नवाज़ा था। 2017 में उन्हें फेमिना वूमन जूरी अवॉर्ड मिल चुका है और साल 2022 में उन्हें नदी संरक्षण के लिए देश के सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया गया।