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बंदे में है दम

समाज का असली ‘नायक’

शिक्षक समाज का आधार स्तंभ होता है। बच्चों को दी जाने वाली उसकी शिक्षा समाज का बुनियाद तैयार करती हैं लेकिन इन्हीं शिक्षकों में से कोई जब स्कूल और सिस्टम की सीमाओं को तोड़ कर शिक्षा की अलख जगाता है तो वो बन जाता है समाज का ‘नायक’। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में कहानी ऐसे ही नायक की जिसने शिक्षक के पेशे और शिक्षा को एक नए मुक़ाम पर पहुंचा दिया है।

रास्ते का मास्टर

लोग उन्हें रास्तार मास्टर के नाम से जानते हैं। रास्तार मास्टर यानी रास्ते का शिक्षक। क़रीब 35 साल के इस टीचर ऑफ़ द स्ट्रीट का असल नाम है दीप नारायण नायक। पश्चिम बंगाल में आसनसोल के जामुड़िया के रहने वाले दीप नारायण ने शिक्षा का ऐसा दीप जलाया है जो किसी क्रांति से कम नहीं। 2010 से शिक्षक के तौर पर काम कर रहे दीप नारायण फ़िलहाल आसनसोल के तिलका मांझी आदिवासी स्कूल में पढ़ा रहे हैं। एक साधारण शिक्षक से रास्ते का मास्टर बनने की दीप की कहानी इस देश के तमाम आदिवासी और पिछड़े इलाक़ों की कहानी है।

दरअसल आदिवासी स्कूल में पढ़ाने के दौरान दीप ने ये देखा कि आदिवासी बच्चों का स्कूल छूटने का अनुपात बहुत ज़्यादा है। पांचवी-छठी तक कई बच्चे स्कूल आना बंद कर देते हैं। उन्हें ये बात बहुत कचोटने लगी। उन्होंने इसका पता लगाने की ठानी। स्कूल के बाद वो आदिवासी समुदाय के गांव-गांव जाने लगे। पता चला कि कई बच्चियों की कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है इसलिए वो स्कूल आना बंद कर देती हैं तो लड़के छोटा-मोटा काम-धंधा करने लग जाते हैं। घरवालों को भी यही ठीक लगता है। उन्हें लगता है कि बच्चों के काम करने से कुछ आमदनी बढ़ जाएगी। दीप नारायण ने इस पर काम करना शुरू कर दिया। वो लोगों को बाल विवाह और बाल श्रम के ख़िलाफ़ जागरूक करने लगे। इसका असर भी होने लगा। बच्चों का स्कूल छूटना पहले से थोड़ा कम हुआ।

जहां दीवार वहीं रास्ता

दीप नारायण कहते हैं कि लोग समझते हैं कि जहां दीवार खड़ी हो गई रास्ते वहीं बंद हो जाते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। दीवार से भी रास्ता बनाया जा सकता है। अपनी इसी बात को उन्होंने सच कर दिखाया कोरोना काल में। देश में जब कोरोना की वजह से लॉकडाउन लगा तो इन आदिवासी बच्चों की पढ़ाई मुश्किल में पड़ गई। इन बच्चों के पास ना तो मोबाइल थे, ना इंटरनेट तो भला ऑनलाइन क्लास कैसे संभव होतीं। दीप नारायण ने इस मुश्किल को ना केवल आसान बनाया बल्कि एक नई शुरुआत की। वो ख़ुद बच्चों के पास पहुंच गए उनके गांव, बर्धमान ज़िले का जोबा अट्टापाड़ा। गांव के घरों की दीवारों को उन्होंने ब्लैक बोर्ड बना दिया। सोशल डिस्टेंसिंग के साथ थोड़ी-थोड़ी दूर पर हर बच्चे के लिए एक अलग ब्लैक-बोर्ड। दीप अब रोज़ाना गांव जाकर बच्चों को पढ़ाने लगे। इस नए अंदाज़ से शुरू हुई पढ़ाई ने बच्चों की ज़िंदगी में नया रंग भर दिया।

शिक्षा से बच्चों के घरवालों को जोड़ा

अब बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे बल्कि स्कूल ख़ुद बच्चों के पास आ चुका था। गांव में शुरू हुई इस तरह की पढ़ाई ने बच्चों के घरवालों को भी आकर्षित किया। दीप नारायण ने इसका भी अच्छा इस्तेमाल किया। उन्होंने बच्चों के साथ-साथ उनके मां-बाप, दादा-दादी-नाना-नानी को भी पढ़ाना शुरू कर दिया। शुरू में तो कई लोग पढ़ाई करने में झिझके, लेकिन धीरे-धीरे गांव के कई लोग जुड़ते चले गए। दीप ना केवल उन्हें पढ़ाते बल्कि समय-समय पर टेस्ट भी लिया करते है और पास करने पर ईनाम भी। इससे बच्चों के अभिभावकों में भी पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी बढ़ने लगी। अपने इस अभियान से दीप नारायण ने एक साथ तीन पीढ़ियों को शिक्षा दे दी। बच्चे, उसके मां-बाप और उनके दादा-दादी, नाना-नानी। अब तक दीप हज़ारों अभिभावकों का शिक्षा से साक्षात्कार करवा चुके हैं। उनके इस अभियान का एक बड़ा असर ये हुआ कि जिन अभिभावकों को अब तक शिक्षा का महत्व समझ में नहीं आता था, अब उनकी सोच बदल गई है। अब वो अपने बच्चे को काम पर नहीं स्कूल भेजना चाहते हैं।

अब दीप के जलाई हुई शिक्षा की अलख जोबा अट्टापाड़ा के आसपास के गांवों में भी फ़ैलने लगी और धीरे-धीरे नायक की इस क्लास में और बच्चे जुड़ते चले गए।

लैंप की रोशनी में जब चले स्कूल

इन आदिवासी बस्तियों में ना बिजली-पानी सड़क जैसी बुनियादी सुविधा भी नहीं है। कई बार दीप दिन के बजाए रात में बच्चों को पढ़ाने के लिए पहुंचे और बच्चों और उनके घरवालों ने दीप का साथ दिया। रात के अंधियारे में लैंप और मोमबत्ती की रोशनी में बच्चों ने पढ़ाई की। शिक्षा की अलख की ये मिसाल शायद ही कहीं और बनी होगी।

मोबाइल लाइब्रेरी की शुरुआत

दीवार पर ब्लैकबोर्ड, बच्चों तक स्कूल लाने के साथ-साथ दीप नारायण नायक ने और भी कई नवाचार के काम किये। उन्होंने बच्चों को माइक्रोस्कोप की जानकारी दी। वो कई बार एक साथ कई माइक्रोस्कोप लेकर बच्चों के पास पहुंच जाते और उन्हें उसकी तकनीक की जानकारी देते। माइक्रोस्कोप के इस्तेमाल की ज़रूरत बताते। इसी तरह का उनका एक नवाचार है मोबाइल लाइब्रेरी। आदिवासी समुदाय के बच्चों के पास क़िताब-कॉपियां ख़रीदने के पैसे नहीं होते। ऐसे में दीप ने मोबाइल लाइब्रेरी की शुरुआत की। उन्होंने प्लास्टिक की पहिये वाली टेबल को लाइब्रेरी का रूप दे दिया। इस लाइब्रेरी को उनके बच्चे ही गांव में घुमाते हैं। जिस बच्चे को क़िताब चाहिए वो उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करते हैं। एक हफ़्ते के लिए क़िताब बच्चे को दे दी जाती है। एक हफ़्ते बाद जब क़िताब वापस ली जाती है तो बच्चे से उस क़िताब से कुछ सवाल भी किये जाते हैं ताकि पता चल सके कि उसने क़िताब पढ़ी भी या नहीं। बच्चे को दूसरी क़िताब तभी मिलती है जब वो पहली क़िताब से पूछे गए सवालों का जवाब देता है। उन्होंने अपनी मोबाइल लाइब्रेरी से बच्चों के अभिभावकों को भी जोड़ा। दीप ने लोगों की रुचि के हिसाब से उनको क़िताबें मुहैया करवाई जैसे अगर कोई शख़्स खेती करता है तो दीप ने उन्हें खेती से जुड़ी क़िताबें दी, किसी की दिलचस्पी अगर जड़ी-बूटी में है तो दीप ने उसे आर्युवेद की क़िताब दी। इससे लोगों में क़िताब पढ़ने और उससे जानने-समझने की ललक भी बढ़ी। दीप की मोबाइल लाइब्रेरी से लोग ऐसे जुड़े कि अब वो इंतज़ार करते हैं कि उनकी बस्ती में कब ये लाइब्रेरी आए और वो उससे क़िताबें ले सकें। उन्होंने गांव के बच्चों को योग से जोड़ा। वो बच्चों के साथ मिलकर पौधे लगाते हैं। बच्चों के जन्मदिन पर वो ख़ुद केक लेकर आते हैं और उनकी ख़ुशी में शामिल होते हैं।

4000 से ज़्यादा को कोरोना वैक्सीन

दीप केवल क़िताबी ज्ञान देने को शिक्षा नहीं मानते। वो चाहते हैं कि लोग जागरूक हों। कोरोना काल में उन्होंने लोगों और अपने बच्चों के बीच मास्क और सेनेटाइज़र बांटे। सबसे बड़ी परेशानी की बात तब सामने आई जब उन्होंने देखा कि गांव के गांव कोरोना की वैक्सीन लेने के लिए तैयार नहीं थे। जब उन्होंने लोगों से बात कि तो पता चला कि लोग वैक्सीन को लेकर आशंकित हैं। उन्होंने इसकी एक रिपोर्ट तैयार कर ज़िले के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को सौंपी। जब स्वास्थ्य विभाग ने उनकी रिपोर्ट के आधार पर जांच की तो दीप की बात सही साबित हुई। इसके बाद स्वास्थ्य विभाग ने दीप को ही लोगों को समझाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी। दीप ने गांव के एक-एक घर जाकर लोगों को समझाया। माइक्रोस्कोप से उन्हें कोरोना वायरस दिखा कर बताया कि वैक्सीन कितनी ज़रूरी है। बहुत मुश्किल से लोग वैक्सीन लेने के लिए तैयार हुए लेकिन अब एक दूसरी मुश्किल आन खड़ी हुई। बिना फ़ोन के वैक्सीन नहीं मिल रही थी। दीप ने इसके लिए ख़ुद अपना, अपने दोस्तों और परिवारों के फ़ोन का इस्तेमाल किया। शुरुआत में गांव की कुछ महिलाओं ने वैक्सीन लगवाई। गांव के लोगों ने क़रीब एक हफ़्ते तक इंतज़ार किया कि उन्हें कोई दिक़्क़त तो नहीं आई। जब सब ठीक रहा तो फ़िर लोग ख़ुद से सामने आने लगे और वैक्सीन लगवाने लगे। दीप की इस कोशिश से 4000 से ज़्यादा गांववालों को वैक्सीन लगाई गई।

रुढ़ियों के ख़िलाफ़ जंग

दीप नारायण ने आदिवासी समाज को ना केवल शिक्षा से जोड़ा बल्कि उनके भीतर फैली रुढ़ियों को भी ख़त्म करने की कोशिश की। बाल-विवाह, बाल श्रम के ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक किया तो लोगों को जादू-टोने और झाड़-फूंक जैसी चीज़ों के बारे में भी जानकारी दी। दीप बताते हैं कि बच्चे के बीमार पड़ने पर दवा देने के बजाए मां-बाप उन्हें ओझा के पास ले जाते थे। दीप की एक छात्रा ने पढ़ने आना बंद कर दिया। जब दीप उसके घर पहुंचे तो पता चला कि उसे तेज़ बुख़ार है और मां-बाप उसकी झाड़-फूंक करवाने जा रहे हैं। दीप ने उन्हें समझाया। जांच हुई तो पता चला कि बच्ची को मलेरिया है। डॉक्टरी इलाज के बाद बच्ची ठीक हो गई। इसके बाद दीप ने बच्ची के घरवालों को मच्छर के काटने से होने वाली बीमारियों की जानकारी दी। इसी तरह दीप लगातार इस समाज को रुढ़ियों के जाल से बाहर निकालने का प्रयास कर रहे हैं।

दीप का सपना

दीप को उनकी इस तपस्या के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं। साल 2021 के यूनिसेफ़ फ़ोटो ऑफ़ द ईयर में सौरभ दास की खींची गई उनके स्ट्रीट स्कूल की तस्वीर को सेकेंड प्राइज़ मिला। दीप बताते हैं कि लोगों की सराहना और तारीफ़ उनका हौसला बढ़ाती है लेकिन उनका सपना इससे बड़ा है। वो हर पिछड़े वर्ग और आदिवासी समुदाय को शिक्षा से जोड़ना चाहते हैं। वो उनके समाज की रुढ़ियों को तोड़ना चाहते हैं। उनका मक़सद सिर्फ़ सामान्य शिक्षा नहीं बल्कि ऐसी शिक्षा देना है जो उनके जीवन में नया सवेरा लाए। वो हर महिला को शिक्षित करना चाहते हैं। दीप कहते हैं कि अगर मां शिक्षित होगी तो बच्चा ज़रूर शिक्षित होगा।

दीप की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती। दीप की सोच और उनका जज़्बा इस कहानी को अनंत बना रहा है। उनका योगदान बहुत विशाल है। इसलिए तो दीप नारायण को समाज का सच्चा ‘नायक’ कहा जाता है।