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बंदे में है दम

टिफ़नी: अंधेरे में उजाले की मांझी

एक बार उनपर किसी ने तंज कसा था ‘किसी अंधे को अंधों का नेतृत्व नहीं करना चाहिए’। कोई और शख़्स होता तो शायद अपने क़दम पीछे कर लेता, अपनी शारीरिक कमज़ोरी और सामाजिक दबाव के आगे घुटने टेक देता, हार मान लेता लेकिन ये तो योद्धा थीं, हार मानना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। आज वो ना केवल ख़ुद के जैसे दृष्टिबाधित लोगों का नेतृत्व कर रही हैं बल्कि दुनिया से लड़ कर उन्हें, उनके अधिकार भी दिलवा रही हैं। इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में आज की कहानी इसी योद्धा पर- नाम है टिफ़नी बरार

ज़िंदगी से जंग का जज़्बा

एक सीनियर आर्मी ऑफ़िसर की बेटी टिफ़नी बरार का जन्म चेन्नई में हुआ था। बचपन में ही कुछ परेशानियों की वजह से उनकी आंखों की रोशनी चली गई। कहते हैं ना कि भगवान एक रास्ता बंद कर देता है तो सौ खोल देता है, बस आपको उन रास्तों पर आगे बढ़ना होता है। टिफ़नी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उनकी आंखों की रोशनी तो चली गई लेकिन उनका जज़्बा, उनका हालातों से लड़ने का हौसला बहुत मजबूत हो गया।

पिता सेना में थे इसलिए टिफ़नी को बचपन से ही अलग-अलग शहरों और राज्यों में रहने का मौक़ा मिला। यहां तक कि वो कई सालों तक ब्रिटेन में भी रहीं। इस वजह से उनकी कई भाषाओं पर अच्छी पकड़ बन गई। ये उनकी लड़ाई का बहुत मजबूत हथियार साबित हुआ।

मुश्किलों का दौर और संघर्ष

आंखों की रोशनी जाने के बाद टिफ़नी की ज़िंदगी बदल गई थी। उनकी मां उनका पूरा ख़्याल रखती थीं लेकिन किस्मत को ये भी मंज़ूर नहीं हुआ। टिफ़नी की छोटी उम्र में ही उनकी मां भी उन्हें छोड़ कर चल बसीं। ये टिफ़नी के लिए दूसरा बड़ा झटका था। अब हर चीज़ के लिए उन्हें दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता था। जो बातें मां सिखा सकती थी वो दूसरों से सीखना-जानना आसान नहीं था।

इन सबसे बीच टिफ़नी की पढ़ाई जारी रही। लंदन और भारत के कई स्कूलों में उन्होंने पढ़ाई की। इस दौरान भी उन्हें कई तरह की परेशानियां झेलनी पड़ीं। स्कूल में उन्हें पीछे की बेंच पर बैठने के लिए मजबूर किया जाता। खेल-कूद में शामिल होने पर रोक थी। बच्चों से लेकर कई शिक्षकों तक का व्यवहार सही नहीं था लेकिन टिफ़नी डटी रहीं। ब्लाइंड स्कूल में मिली शिक्षा ने उनकी मुश्किलें काफ़ी हद तक आसान कीं। टिफ़नी काफ़ी समय तक तिरुवनंतपुरम में भी रहीं। पढ़ाई के आख़िरी साल वो वेलिंगटन में रहीं जहां विनीता अक्का उनकी घरेलू सहायिका थीं। विनीता टिफ़नी की ज़िंदगी में रोशनी बन कर आईं। उन्हें वो सब सिखाया-बताया जिसकी उन्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। विनीता की वजह से टिफ़नी की ज़िंदगी बदल गई।

ज्योतिर्मय फाउंडेशन का गठन

तिरुअनंतपुरम के कंठारी केंद्र से जुड़ने के बाद टिफ़नी में नया आत्मविश्वास पैदा हुआ। यहां उन्होंने सफ़ेद छड़ी के सहारे चलना सीखा। सिर्फ़ इस एक क़दम ने उन्हें ये भरोसा दिला दिया कि वो अकेले बहुत कुछ कर सकती हैं। टिफ़नी कंठारी केंद्र में रिसेप्शनिस्ट के तौर पर काम करने के साथ-साथ इंटरप्रेन्योरशिप का कोर्स भई कर रही थीं। अब वो अकेले बस से आना जाना करने लगीं। सड़कों को पार करने लगीं। इसी दौरान टिफ़नी को मसहूस हुआ कि उन्हें अपने जैसे लोगों के लिए काम करना चाहिए। इसी सोच के साथ उन्होंने 2015 में ज्योतिर्मय फाउंडेशन की शुरुआत कर दी। टिफ़नी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अगर दृष्टिबाधितों को स्कूल आने में परेशानी है तो स्कूल उनके पास पहुंचे। ज्योतिर्गमय के माध्यम से, टिफ़नी और उनकी टीम तिरुवनंतपुरम में कई दृष्टिबाधित  लोगों के घरों का दौरा करती है। वे उन्हें ब्रेल, कंप्यूटर, पर्सनल ग्रूमिंग समेत कई तरह की ट्रेनिंग मुहैया करवाती हैं।
ज्योतिर्गमय फाउंडेशन नेत्रहीन लोगों के लिए पूरे केरल में वर्कशॉप का आयोजन करता है। टिफ़नी ने धीरे-धीरे मोटिवेशनल स्पीच देना शुरू कर दिया। उन्होंने नेत्रहीन लोगों में आत्मविश्वास भरने, उन्हें स्पेशल ट्रेनिंग देने का काम शुरू कर दिया। टिफ़नी अपने जैसे स्पेशल लोगों के लिए हॉस्टल और क्लासेज़ भी चलाने लगीं। उन्होंने नेत्रहीनों को मोबाइल चलाना, कंप्यूटर के बेसिक और एडवांस कोर्स के साथ सोशल मीडिया हैंडल करना सिखला दिया।

कोरोना काल में जंग

कोरोना काल यूं तो सबके लिए मुश्किलों भरा रहा लेकिन टिफ़नी जैसे लोगों के लिए ये दोहरी मुसीबत साबित हुआ। नेत्रहीन अपने ज़्यादातर काम स्पर्श के ज़रिये ही करते हैं, कुछ पढ़ना हो या किसी जानकारी को हासिल करना। ब्रेल लिपि भी स्पर्श से ही पढ़ी जाती है। लेकिन कोरोना काल में जब बाहर की चीज़ें या किसी शख़्स को छूना, बीमारी को न्योता देना था तब भी दृष्टिबाधित लोगों को बाहर निकलने पर बिना स्पर्श के काम चलाना मुश्किल था। इस दौरान टिफ़नी और उनकी संस्था ने दृष्टिबाधित लोगों की आगे बढ़ कर मदद की। कई परिवारों को राशन मुहैया करवाया। ख़ुद टिफ़नी भी कोरोना से पीड़ित हुईं लेकिन काम से पीछे नहीं हटीं। उन्होंने कोरोना काल के दौरान नेत्रहीनों के लिए ऑनलाइन क्लासेज़ की शुरुआत कर डाली। ख़ासतौर पर उन्होंने ऑनलाइन क्लासेज़ में अंग्रेजी और कंप्यूटर पढ़ाया। इतना ही नहीं जो नेत्रहीन क्लास की फ़ीस देने में असमर्थ थे उन्हें नि:शुल्क ट्रेनिंग दी गई। अब तक टिफ़नी 200 से ज़्यादा नेत्रहीनों को ब्रेल, मोबाइल एप्लिकेशन्स, कंप्यूटर और दूसरी स्किल्स की ट्रेनिंग दे चुकी हैं। इतना ही नहीं वो नेत्रहीन बच्चों के लिए किंडर गार्डन और प्री स्कूल भी चला रही हैं।

जज़्बे को मिला सम्मान

टिफ़नी पिछले 7 सालों से अपनी संस्था के ज़रिए नेत्रहीन लोगों के लिए काम कर रही हैं। शिक्षा से लेकर उनकी दैनिक कामकाज की चीज़ों को आसान बनाने के लिए लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसे में उनके काम को पहचान और जज़्बे को सम्मान भी ख़ूब मिले। होप ट्रस्ट अवॉर्ड, फ़ॉर द सेक ऑफ़ ऑनर, सार्थक नारी महिला अचीवर, बेस्ट रोल मॉडल का राष्ट्रीय सम्मान, केरल वनीथा रथना और फ़िनिक्स अवॉर्ड मिले। इसी साल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर टिफ़नी को नारी शक्ति सम्मान से सम्मानित किया। वो कई टीवी शो में स्पेशल गेस्ट के तौर पर शामिल हो चुकी हैं। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र ने भी टिफ़नी की संस्था ज्योतिर्मय को विशेष सलाहकार का दर्जा दिया है।

नामुमकिन कुछ भी नहीं

टिफ़नी के जीवन का मंत्र है कि नामुमकिन कुछ भी नहीं। उनकी स्काई डाइविंग, पैराग्लाइडिंग और साइकिलिंग करती हुई तस्वीरें उनके इस जीवन मंत्र को सच साबित कर रही हैं। टिफ़नी की संस्था फंड की कमी से जूझ रही हैं। नेत्रहीनों के लिए क्लास चलाना और उन्हें दूसरी स्किल्स की ट्रेनिंग देने का ख़र्च निकालना भी कई बार मुश्किल हो जाता है। लेकिन जो टिफ़नी बुरे से बुरे दौर को भी अपने जज़्बे से जीत चुकी हैं वो इससे भी नहीं घबरातीं। वो एक समाजसेवी हैं, वो एक स्पेशल एजुकेटर हैं, वो एक जंगबाज़ हैं और सबसे बड़ी बात कि वो एक अच्छी इंसान हैं। टिफ़नी बरार का ये संघर्ष, उनका ये जीवन हर किसी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट टिफ़नी के इस संघर्ष को सलाम करता है।