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बंदे में है दम

उषा की कला साधना

ज़रा सोचिए, जिस बच्ची के पिता ने उसके गाने से नाराज़ होकर उसे कुएं में फेंक दिया हो, वो उसी कला के लिए देश के प्रतिष्ठित पद्म सम्मान से नवाज़ी जाए। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट एक ऐसी ही कलाकार की कहानी लेकर आया है जिसे पद्मश्री से अलंकृत किया जा रहा है। इस कलाकार का नाम है उषा बारले।

पंडवानी गायन को नया आयाम
उषा बारले छत्तीसगढ़ के भिलाई में रहती हैं। वो पंडवानी गायन की स्थापित गायिका हैं। केवल सात साल की उम्र से पंडवानी गायकी शुरू करने वाली उषा पिछले 37 सालों से लगातार अपनी प्रस्तुति दे रही हैं। भारत के 20 से अधिक शहरों के साथ-साथ उषा ने अमेरिका और ब्रिटेन समेत कई देशों में भी अपने कार्यक्रम पेश किये हैं। उनकी इसी उपलब्धि को भारत सरकार ने पद्म श्री सम्मान से नवाज़ा है। इससे पहले उन्हें राज्य सरकार समेत कई संस्थाओं ने अनगिणत सम्मानों से अलंकृत किया है।

कठिन रही कला यात्रा
उषा बारले आज पद्म सम्मान के लिए चुनी गई हैं लेकिन उनकी कला यात्रा आसान नहीं थी बावजूद इसके कि उनके पिता ख़ुद एक कलाकार थे। उषा बचपन में खेल के दौरान लकड़ी को चिकारा की तरह बजाती और पंडवानी गाने की कोशिश करती। उनके लिए ये एक खेल की तरह था लेकिन एक दिन जब उनके इस खेल को उनके फूफा महेत्तर दास बघेल ने देखा तो उन्हें उषा में पंडवानी की नई आस नज़र आई। उन्होंने तय कर लिया कि वो उषा को पंडवानी सिखाएंगे। महेत्तर ख़ुद भी एक पंडवानी कलाकार थे। उन्होंने आसपास के कई और बच्चों को जोड़ा और सबको पंडवानी सिखाना शुरू कर दिया। यहां से उनकी पंडवानी की यात्रा शुरू हुई।

पंडवानी की शिक्षा में पति भी साथ
घरवालों ने उषा की शादी केवल दो साल की उम्र में ही कर दी थी। जिनसे शादी हुई थी अमरदास बारले वो घर के पास ही रहते थे। सब साथ खेलते थे। यहां तक कि जब महेत्तर दास बघेल ने पंडवानी की क्लास शुरू की तो उषा के साथ-साथ अमरदास भी पंडवानी सीख रहे थे।

जब पिता ने कुएं में फेंका
उषा के पिता खान सिंह जांगड़े भी एक कलाकार थे लेकिन वो नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे भी कलाकार बने। वो एक कलाकार होने का संघर्ष झेल रहे थे। बहुत कम आमदनी और भारी संघर्ष की ज़िंदगी से जूझने वाले खान सिंह बिल्कुल नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे भी ऐसी ज़िंदगी जीयें। जब 7 साल की उम्र में उषा ने अपने स्कूल के कार्यक्रम में पहली बार गाया तो खान सिंह जांगड़ उसे देखकर बहुत रोये। उन्होंने पहले तो बेटी को बहुत समझाने की कोशिश की कि वो पंडवानी का अपना प्यार छोड़ दे लेकिन जब बेटी नहीं मानी तो उन्होंने गुस्से में आकर उसे कुएं में फेंक दिया। गनीमत रही कि उषा की मां धनमत बाई वहीं मौजूद थी। उन्होंने और आसपास के लोगों ने उषा को कुएं से बाहर निकाला। इसके बाद लोगों ने खान सिंह को समझाया। उन्हें एक कलाकार का धर्म याद दिलाया। खान सिंह ख़ुद समझते थे कि उन्होंने सही नहीं किया। उस दिन के बाद से पिता का भी हृदय परिवर्तन हो गया। उन्होंने अपनी बेटी को आगे बढ़ने का आशीर्वाद दिया। उषा के सिर से उनके पिता का साया बहुत कम उम्र में उठ गया। वो केवल दस साल की थी जब खान सिंह जांगड़े गुज़र गये। तब उनकी मां धनमत बाई घर में मौजूद नहीं थी। घर में पिता का शव रखा था। मातम के माहौल के बीच रिश्तेदार बिसाहू राम बघेल ने उषा को गाने के लिए कहा। उषा ने गाना शुरू किया और पूरी रात अपने पिता के शव के सामने बैठकर गाती रहीं।

संघर्ष से चमका सितारा
उषा के पिता खान सिंह तो गुज़र गये लेकिन आगे चल कर उनका डर सही साबित हुआ। उषा को भी संघर्ष भरे दिन देखने पड़े। घर चलाने के लिए उन्होंने पति का साथ देना शुरू किया। वो फल बेचा करती थीं। अच्छी बात ये रही कि कितने भी मुश्किल दिन आए उन्होंने पंडवानी को कभी नहीं छोड़ा। इधर पति अमरदास ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद आईटीआई की। टेक्निकल कोर्स के बाद उन्हें भिलाई स्टील प्लांट में नौकरी मिल गई। इससे घर के हालात बदल गये। तब उषा ने पंडवानी गायकी पर पूरा ध्यान लगाना शुरू कर दिया। जल्द ही उनकी गायकी ने अपनी पहचान बना ली। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उनकी पंडवानी लोगों को मंत्रमुग्ध करने लगी और अब उन्हें देश के प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक पद्म श्री सम्मान के लिए नामित किया गया है। हमें उम्मीद है कि उनकी कला यात्रा यूं ही अनवरत जारी रहेगी और वो देश-विदेश में अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति और अपनी विरासत को यूं ही आगे बढ़ाती रहेंगी।