उत्तराखंड इन दिनों बड़े संकट से गुजर रहा है। जोशीमठ के पहाड़ धंस रहे हैं। इससे ना केवल वहां की आबादी को बल्कि पूरे पारिस्थितिक तंत्र को बड़ा ख़तरा है। दरअसल हमें इस बात का फ़ैसला करना है कि हमारी प्राथमिकता क्या हैं। क्या विकास के नाम पर हम विनाश की तरफ़ बढ़ रहे हैं? क्या किसी जिद में हम ख़ुद को ही तबाह और बर्बाद कर रहे हैं? बहरहाल, इसी पहाड़ पर कई ऐसे लोग हैं जो अपनी धरती, अपनी मिट्टी, अपने पेड़ों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में कहानी एक ऐसे ही युवा की, जिनकी उम्र तो कम है लेकिन जज़्बा बहुत बड़ा। आज की कहानी चंदन सिंह नयाल की।
पेड़ों से प्यार ने बनाया पर्यावरण प्रेमी
उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे युवा चंदन सिंह नयाल अब किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वृक्षारोपण और जल संरक्षण के लिए उन्हें कई सम्मान मिल चुके हैं। महान पर्यावरण प्रेमी और चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदर लाल बहुगुणा को अपना आदर्श मानने वाले चंदन नैनीताल जिले के ओखलकाण्डा गांव के रहने वाले हैं। उनका गांव जंगल से घिरा हुआ था। चीड़, बांज, बुरांश समेत सैकड़ों प्रजाति के पेड़-पौधे गांव को स्वर्ग बना देते थे। पढ़ाई के लिए चंदन बचपन से ही अपने गांव से बाहर रहे। कभी नैनीताल, कभी रामनगर तो कभी हल्द्वानी। लेकिन जब भी वो छुट्टियों में अपने गांव आते तो जंगल की स्थिति देखकर परेशान हो जाते। ये तब की बात है जब चंदन स्कूल में ही पढ़ते थे। जंगल में लगने वाली आग उन्हें बहुत परेशान करती थी। वो हमेशा जंगलों को बचाने के बारे में सोचा करते थे। इसी सोच ने उनके अंदर के पर्यावरण प्रेमी को बाहर निकाला। छोटी उम्र में ही उन्होंने तय कर लिया कि वो जंगलों को बचाने के लिए काम करेंगे।
नौकरी छोड़ जंगल बचाने में जुटे
चंदन जैसे-जैसे बड़े हुए, पेड़ों और जंगल के प्रति उनका प्यार भी बढ़ता गया। चंदन ने इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के बाद कई जगह नौकरी की लेकिन उनका गांव और उनका जंगल उन्हें पुकारता रहा। आख़िरकार उन्होंने नौकरी छोड़ कर जंगल के लिए काम करने का फ़ैसला किया। हालांकि कई लोगों को उनका ये फ़ैसला सही नहीं लगा लेकिन चंदन पीछे नहीं हटे। उन्होंने अब योजनाबद्ध तरीके से जंगल की सुरक्षा और संरक्षा का काम करने की तैयारी शुरू कर दी।
दावानल पर लगाम की कवायद
चंदन ने देखा कि जंगल की आग ज़्यादातर उन इलाक़ों में लगती है जहां चीड़ और बुरांश के पेड़ों की संख्या ज़्यादा होती है जबकि बांज के पेड़ों के इलाक़े में आग लगने की घटनाएं कम होती है। चंदन ने विशेषज्ञों की मदद से इस बारे में और जानकारी इकट्ठी की और फ़िर शुरू कर दिया बांज के जंगल लगाने का काम। उन्होंने बांज के बीजों को जमा करना शुरू किया। इससे उन्होंने एक नर्सरी तैयार की। चंदन के काम को देखकर गांव के कई लोग भी उनके साथ जुड़ने लगे। लोगों का साथ मिला तो चंदन का हौसला बढ़ा। उन्होंने बांज के पौधों की एक बड़ी नर्सरी तैयार कर ली। अब चंदन ने गांववालों के साथ मिलकर अपने गांव के पास करीब तीन हेक्टेयर ज़मीन पर बांज के पौधे रोप दिये। पिछले 10 सालों में ये पौधे आकार ले चुके हैं। ना केवल उनके गांव के पास का इलाक़ा हरा-भरा हो गया है बल्कि दावानल की घटनाओं में भी कमी आई है।
पौधों के साथ बीजों का भी रोपण
अब तक चंदन ख़ुद अपने हाथों से 50 हज़ार से ज़्यादा पौधे रोप चुके हैं जबकि उनके साथ मिलकर लोगों ने 60 हज़ार से ज़्यादा पौधारोपण किया है यानी दोनों मिलाकर ये संख्या 1 लाख से अधिक हो जाती है। इसके अलावा चंदन बीजों का रोपण भी करते हैं। इसके वन विभाग की भाषा में सीड सोइंग कहा जाता है। चंदन बांज के बीजों को इकट्ठा करते हैं। फ़िर उन्हें लेकर जंगल में जाते हैं। छोटे-छोटे गड्ढे और क्यारियां बनाकर वो इन बीजों को रोप आते हैं। ये बीज प्राकृतिक तौर पर अंकुरित होकर पौधे बनते हैं और बढ़ते हैं। हालांकि सौ में से क़रीब 50 बीज ख़राब हो जाते हैं लेकिन 50 बीज पौधे बन जाते हैं। चंदन हर साल जनवरी-फरवरी के महीने में इन बीजों को रोपते हैं। इस समय होने वाली बारिश इन बीजों को अंकुरित होकर बढ़ने में मददगार साबित होती है।
चाल-खाल बनाकर बने वाटर हीरो
चंदन सिर्फ़ पौधे ही नहीं लगा रहे बल्कि जंगल के ज़रूरी पानी की उपलब्धता पर भी व्यापक स्तर पर काम कर रहे हैं। उन्होंने पहाड़ के हिसाब से ज़रूरी चाल, खाल, पोखर और खंतियों पर ज़ोर दिया है। ये छोटे-छोटे तालाब होते हैं। कोरोना काल के दौरान चंदन ने इस काम की शुरुआत की। चंदन ने अपने साथियों के साथ मिलकर जंगल में पांच हज़ार से ज्यादा ऐसे छोटे तालाब बनाए हैं जो ना केवल इस जंगल के लिए बल्कि पूरे पहाड़ के लिए वरदान साबित हो रहे हैं।
ये छोटे-छोटे तालाब जमीन में पर्याप्त नमी बनाये रखते हैं जिससे पेड़-पौधों को पानी की कमी नहीं होती। नमी होने के कारण जंगल में आग लगने की घटनाएं भी कम हो गई हैं और कभी होती भी हैं तो उस पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। ये छोटे तालाब बारिश का पानी संचय कर भूजलस्तर को सुधारने में भी मददगार साबित हो रहे हैं। इसके साथ-साथ ये जंगली जानवरों और परिंदों को भी पीने का पानी मुहैया करवा रहे हैं। चंदन लगातार जंगल में ऐसे तालाब बनाने के काम में जुटे हुए हैं। उनके इस काम के लिए केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने उन्हें वाटर मैन के ख़िताब से नवाज़ा है।
पलायन रोकने के लिए पहल
पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ चंदन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों से हो रहे पलायन को रोकने के लिए भी काम कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने औषधीय पौधों की खेती पर ज़ोर दिया है। उन्होंने रिंगाल, भीमल जैसे पौधे ख़ास तौर पर लगाये हैं। रिंगाल से टोकरियां बनाई जाती है तो भीमल के रेशे से चप्पल तैयार की जाती है। चंदन लोगों के बीच फलदार पेड़ों के पौधों जैसे आडू, प्लम, सेब, अखरोट, माल्टा और नींबू बांटते हैं। इसके अलावा वो लोगों को बांज के पौधे भी देते हैं ताकि वो इसे जंगल में लगा सकें। चंदन अपने घर आने वाले मेहमानों को भी तोहफ़े के तौर पर पौधे देते हैं। वो कई स्कूलों में बच्चों को पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ा चुके हैं। चंदन को उम्मीद है कि पेड़-पौधे ही पहाड़ से लोगों का पलायन रोक सकते हैं।
शरीर किया दान
चंदन को पेड़ों से इतना प्यार है कि वो नहीं चाहते कि उनकी वजह से एक भी पेड़ काटा जाए। यही वजह है कि उन्होंने हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल को अपना शरीर दान कर दिया है। चंदन पर्यावरण, पेड़ और पहाड़ बचाने के अभियान में जुटे हुए हैं। उम्मीद है कि चंदन की ये मेहनत खुशबू बन कर पूरे पहाड़ पर बिखरेगी और दूसरे लोगों को भी इस अभियान में शामिल होने और पर्यावरण संरक्षण की अहमियत समझाने में कामयाब होगी।
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