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धरती से बदलाव के क़दम

एक गांव का वन संरक्षण अभियान

विकास के नाम पर पर्यावरण, जल, जंगल और ज़मीन को दांव पर लगाने वालों के लिए इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट की ये कहानी किसी आई ओपनर से कम नहीं। हम आज किसी एक व्यक्ति की बात नहीं कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं पूरे एक गांव की। एक ऐसा गांव जो बीते 30 साल से स्वतःसंज्ञान लेते हुए पर्यावरण के संरक्षण में लगा हुआ है।  कैसे एक सामूहिक अभियान बड़े परिवर्तन का सारथी बन सकता है।

डिंडोरी का 40 एकड़ का जंगल
मध्य प्रदेश का डिंडोरी जिला एक आदिवासी जिला है। यहां रहने वाले अधिकांश लोग आदिवासी समुदाय से आते हैं। इसी जिले का एक छोटा सा गांव है ग्राम पड़रिया डोंगरी। जिला मुख्यालय से सटे इस गांव ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है। पर्यावरण प्रहरी की पहचान। 30 साल की मेहनत के बाद आज इस गांव की लगभग 40 एकड़ भूमि में लगे ये हरे भरे हज़ारों पेड़ इस बात की गवाही दे रहे हैं। ग्रामीण बीते तीन दशक से ना सिर्फ़ पेड़ पौधे लगाने में जुटे हैं बल्कि, ये इस पेड़ों को काटने वालों पर 10 हज़ार तक का जुर्माना भी लगाते हैं। छोटा हो या बड़ा। आम आदमी हो या रसूखदार, ये नियम सभी पर समान रूप से लगाया जाता है। यही वजह है आज के वक्त में ये जुर्माने से ही 10 लाख रुपए से अधिक की कमाई कर चुके हैं।

पेड़ों को बचाने की व्यवस्थित कला
गांववालों को ये मालूम है कि इन पेड़ों को कैसे बचाया जा सकता है। यही वजह है कि बीते 30 साल में इस कार्य में कोई ग़लती नहीं हुई है। गांववाले ख़ुद इन पेड़ों की रक्षा भी करते हैं। जुर्माने से जमा हुए पैसों से गांव में विकास कार्य या ज़रुरतमंदों की सहायता जैसे कार्य होते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में जंगल को डोंगर या डोंगरी कहा जाता है। गांव के लोग जंगल में स्थानीय पेड़-पौधों की प्रजातियों का रोपण करते हैं। इससे पारिस्थितिक तंत्र मजबूत होता है। स्थानीय पेड़-पौधे यहां की आब-ओ-हवा के अनुरूप होते हैं। यहां की मिट्टी उन्हें बढ़ने का भरपूर मौक़ा देती है। जंगल को आग से बचाने के लिए सूखे पत्तों की सफाई की जाती है। यही वजह है कि पिछले 30 सालों में ये जंगल इतना विशाल हुआ है।

कभी नज़र आते थे केवल सूखे पेड़
डोंगरी का ये जंगल क़रीब 30-35 साल पहले ख़त्म होने की कगार पर आ गया था। जंगल के लगभग सारे पेड़ काट डाले गये थे। हर तरफ़ सूखे पेड़ और ठूंठ बचे थे। जंगली जानवर और परिदों ने इलाक़ा छोड़ दिया था। जंगल के ख़त्म होने का असर गांव पर भी पड़ने लगा। गांव पर भी सूखे का साया मंडराने लगा। इस स्थिति को पलटने के उद्देश्य से ही गांव के कुछ लोगों ने जंगल को बचाने की ठानी। इसके बाद गांववासियों ने वन समिति का गठन किया। आज इस वन समिति से लगभग आधा गांव जुड़ा हुआ है। एक-दो लोगों की सोच के साथ शुरु हुआ पेड़ काटने पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई। जंगल में जाकर पौधे लगाने की शुरुआत की गई। हालांकि शुरुआत में इन लोगों को बहुत सी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा। गांव में खाना लकड़ी के चूल्हों पर ही बनता था। ऐसे में लोगों को लकड़ी काटने से रोकना बहुत मुश्किल था। लेकिन जंगल बचाने की ठान चुके लोगों ने धीरे-धीरे बाक़ी लोगों को भी समझाने में कामयाबी हासिल कर ली। इसके बाद लोगों ने धीरे धीरे इस कार्य को रोजगार से भी जोड़ा। आज इस जंगल में कई ऐसे औषधीय पेड़ पौधे भी हैं जिनसे वन समिति को अच्छी आमदनी हो रही है। वन समिति अब जंगल की रक्षा करने और पेड़-पौधे लगाने वालों को पेमेंट भी करने लगी है। इससे गांववालों को जंगल से जीवन यापन का साधन मिल गया है।

हर कोई जुड़ा है संरक्षण में
आज के वक्त में इस गांव में एक भी ऐसा बुजुर्ग या बच्चा नहीं जो इन जंगलों के प्रति संवेदनशील ना हो। बीते तीस साल में हर कोई जंगल की कीमत को भली-भांति समझ गया है। यही वजह है कि कोविडकाल में भी इन लोगों ने पौधे लगाना और उनकी देखभाल करना नहीं छोड़ा। ये गांव और यहां रहने वाले एक मिसाल हैं इस बात की कि मुश्किल कुछ नहीं। बस इरादें मज़बूत होना चाहिए। इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट इस बात की उम्मीद करता है कि हमारे देश में ऐसे और भी कई गांव उभरे जिनकी चर्चा हम आपके सामने करें।