32 साल के प्रतीक पिछले कई सालों से चप्पल नहीं पहनते, खाली पैर ही रहते हैं। आख़िर प्रतीक का ऐसा कौन सा संकल्प है जिसकी वजह से उन्होंने नंगे पैर रहना तय किया है ?
ISP ब्यूरो
पुरानी कहावत है: अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता लेकिन हमारी कहानी के नायक इस कहावत पर यकीन नहीं करते। वो तो तबीयत से पत्थर उछालने वाले हैं जो आसमान में सुराख़ कर दे।
इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट की आज की कहानी के किरदार हैं गुजरात के अमरेली के रहने वाले प्रतीक सावलिया।
सप्तऋषियों की तपोभूमि में एक और तप
गुजरात के साबरकांठा ज़िले में सप्तेश्वर नाम की एक जगह है। सप्तेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है। मान्यता है कि यहां कश्यप ऋषि का आश्रम हुआ करता था। इसी जगह सप्तऋषियों ने एक साथ तपस्या की थी।
साबरमती के इसी तट पर आज एक और तपस्या की जा रही है। ये तपस्या है गाय से ग्राम सुराज लाने की। ये तपस्या है गाय के जरिये गांव को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की। लेकिन साबरकांठा के आरसोडिया गांव में चल रही इस तपस्या की नींव तो कहीं और पड़ी थी।
ख़ुद के लिए नई राह बनाई
अमरेली में जन्में प्रतीक की पढ़ाई-लिखाई अहमदाबाद में हुई। बी कॉम करने के बाद ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट का कोर्स किया। इसी दौरान उनका चयन गांधी फेलोशिप में हो गया। राजस्थान के चुरू और सुजानगढ़ के कई गांवों में उन्होंने ज़मीनी स्तर पर काम किया। इसी दौरान उन्हें अपनी सोच और समझ में बड़ा बदलाव महसूस होने लगा। कुछ दिनों बाद प्रतीक राज्य गौ सेवा आयोग से जुड़ गए । काम के दौरान प्रतीक का पाला कुछ भ्रष्टाचारियों से पड़ा। इससे प्रतीक परेशान रहने लगे और आख़िरकार उन्होंने एक भ्रष्टाचारी को एंटी करप्शन ब्यूरो में शिकायत कर सज़ा भी दिलवा दी। लेकिन वो यहीं नहीं थमे। प्रतीक ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई का बिगुल फूंक दिया। अपने इस संकल्प को हमेशा याद रखने के लिए उन्होंने चप्पल पहनना छोड़ दिया।
ज़मीनी स्तर पर काम करने की चाहत गांव खींच लाई
प्रतीक हमेशा से लोगों के बीच रह कर, गांव-देहात में रह कर काम करना चाहते थे। इसी वजह से उनका गांवों में आना-जाना लगा रहा। इसी बीच उनके एक मित्र ने उन्हें गाय पालने की सलाह दी।
दरअसल गुजरात के ज़्यादातर गांवों के बाहर वैसी गायों की गौशाला होती है जो बूढ़ी, बीमार या अपाहिज होती हैं। इन गायों को उनके मालिक गांव के बाहर की गौशालाओं में छोड़ देते हैं। ये गौशालाएं दान से चलती हैं लेकिन अक्सर यहां गायों की सही देखभाल नहीं होती।
प्रतीक के मित्र ने ऐसी ही एक गौशाला से दो गायें ले जाने का अनुरोध किया। गायों से प्रतीक का पुराना नाता था इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। उन्हें जो तीन गायें मिली उनमें एक बहुत ज़्यादा बीमार थीं, एक का थन कटा हुआ था जबकि एक की हालत भी अच्छी नहीं थी लेकिन प्रतीक पीछे नहीं हटे। तीनों गायों को पालना शुरू कर दिया। प्रतीक की मेहनत और लगन का नतीजा ये हुआ कि तीनों गायों की हालत में तेज़ी से सुधार आने लगा। करीब 2 साल बाद दो गायों ने बच्चों को जन्म दिया। अब प्रतीक को गायों से दूध मिलने लगा। इसके बाद प्रतीक उसी गौशाला से 4 और गाय लेकर आए। उन गायों की स्थिति भी बहुत ख़राब थी लेकिन प्रतीक ने उन गायों को भी लाड़-प्यार और अपनी इच्छाशक्ति से तंदुरुस्त कर दिया। इनमें से दो गायों ने दूध देना शुरू कर दिया, दो ने नहीं लेकिन प्रतीक सभी गायों की सेवा करते रहे। इसी दौरान प्रतीक को लगा कि गायों की सेवा नौकरी के साथ संभव नहीं है। फ़िर क्या था, प्रतीक ने नौकरी छोड़ दी और गौपालन में जुट गए।
सफ़र नहीं रहा आसान
प्रतीक का ये फ़ैसला आसान नहीं था। घर-परिवार के लोगों ने नौकरी छोड़ने के फ़ैसले पर नाराज़गी जताई। पत्नी भी ख़फ़ा हो गईं लेकिन प्रतीक पीछे नहीं हटे। आख़िरकार प्रतीक के जज़्बे के आगे सबने हार मान ली। अब प्रतीक की पत्नी भी गौशाला में उनका हाथ बंटाती हैं। प्रतीक और उनकी पत्नी की मेहनत का नतीजा ही है कि तीन गायों से शुरू हुआ उनका सफ़र अब 108 गायों तक पहुंच चुका है।
गाय को गांव से जोड़ने की कवायद
प्रतीक जिस आरसोडिया गांव में अपनी गौशाला चला रहे हैं वो बहुत ही पिछड़ा इलाक़ा है। ना शिक्षा है, ना रोज़गार के साधन। इलाक़ा सूखा है। खेती सिर्फ़ बारिश के समय ही हो पाती है ऐसे में गांव के लोग रेत खनन जैसे कामों से अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। लेकिन प्रतीक इसमें भी बदलाव लाने में जुटे हैं। गांव के हर घर को गाय के बिजनेस मॉडल से जोड़ना चाहते हैं। वो इस प्रयास में जुटे हैं कि गांव के हर घर में कम से कम एक गाय हो। हर घर में गाय पलेगी तो हर घर में दूध का उत्पादन होगा। घर के ख़र्च के अलावा बचे दूध को अहमदाबाद के दूध कारोबारियों को अच्छे दाम पर बेचा जाएगा। इससे गांव के लोगों की माली हालत में सुधार आएगा। यही नहीं इस बात की भी कवायद की जा रही है कि गांव में ही खली उत्पादन, अच्छे चारे की खेती समेत गौपालन से जुड़े और भी काम शुरू किये जाएं। प्रतीक इससे होने वाली आमदनी का बड़ा हिस्सा बीमार और बिना दूध देने वाली गायों की देखभाल में ख़र्च करना चाहते हैं। फिलहाल उन्होंने गांव के 12 लोगों को गौशाला के ज़रिये रोज़गार दिया है। उनकी ये सोच बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है। उम्मीद है कि प्रतीक अपने इस मिशन में कामयाब होंगे और ना केवल आरसोडिया बल्कि इस जैसे और भी कई गांवों तक अपनी क्रांति की ज्योति फैलाएंगे।
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