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खेत-खलिहान

बंजर बुंदेलखंड में बदलाव के बादल

बस कुछ साल पहले की ही बात है, साल के क़रीब 6 महीने बुंदेलखंड पानी के लिए तरसता था। ऐसा सूखा पड़ता था कि खेत-खलिहान बंजर हो जाते थे। जानवरों की बात छोड़िए इंसान तक को पीने के लिए पानी नहीं मिलता था। पानी के लिए संघर्ष उनके जीवन का हिस्सा बन गया था। हर साल की यही स्थिति थी। बुंदेलखंड के सूखे पर सियासत तो बहुत होती थी लेकिन उससे यहां के लोगों का जीवन नहीं बदल रहा था। ऐसा नहीं था कि बुंदेलखंड में बारिश नहीं होती थी। बारिश होती थी और भरपूर होती थी लेकिन पानी टिकता नहीं था।

उमा शंकर का जलयोद्धा बनने का सफ़र

बचपन से ही उमा शंकर ने पलायन देखा है। रोज़ी-रोटी और पानी की कमी की वजह से लोग गांव छोड़-छोड़ कर शहर जाते रहे। कई बार उनकी मां ने उमा शंकर से भी कहा था कि एक दिन तुमलोग भी गांव छोड़ कर चले जाओगे। पलायन और मां की ये बातें उमा शंकर को हमेशा कचोटने लगीं। वो हमेशा गांव के लिए कुछ करने की सोचने लगे। कम उम्र से ही सामाजिक कार्यों से जुड़े उमा शंकर ने ठान लिया था कि वो गांव की तस्वीर बदल कर ही दम लेंगे।

बुंदेलखंड में बदलाव की नींव पड़ी साल 2005 में जब दिल्ली में जल और ग्राम विकास पर एक वर्कशॉप का आयोजन किया गया। इस वर्कशॉप में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने एक ऐसा मंत्र दिया जिसने बुंदेलखंड में क्रांति की शुरुआत कर दी। उन्होंने सुझाव दिया कि सूखाग्रस्त इलाक़ों के खेतों में अगर ऊंची मेड़ बना दी जाए तो बारिश का पानी रोका जा सकता है। बस यही मंत्र बांदा के जखनी गांव के रहने वाले उमा शंकर पाण्डेय के दिल-ओ-दिमाग पर चढ़ा गया। मशहूर पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र  की सलाह पर जखनी को जल ग्राम बनाने का फ़ैसला किया गया। लेकिन ये इतना आसान नहीं था। जल संरक्षण की इस पद्धति को जखनी का कोई भी किसान इस्तेमाल नहीं कर रहा था। उमा शंकर ने अपने खेत से इसकी शुरुआत की। अपने पांच एकड़ के खेत के चारों तरफ़ मेड़ बना दी। पहले तो लोगों को लगा कि मेड़ बनाने की मेहनत बेकार होगी लेकिन जब बारिश का पानी उमा शंकर के खेतों में रुका तो लोगों की सोच बदलने लगी। उमा शंकर ने अपने उसी खेत 5 महीने में गेहूं, धान, दालें और सब्ज़ियों की अच्छी-ख़ासी फसल ले कर सबको चौंका दिया। उनका अनुसरण कर पहले 5 किसानों ने अपने खेत में मेड़ बनाई और फ़िर देखते ही देखते पूरे गांव के किसान मेड़ बनाने लगे।

मेड़बंदी यज्ञ अभियान का आरंभ

उमा शंकर पाण्डेय ने मेड़बंदी को जैसे अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन्होंने इसे मेड़बंदी यज्ञ का नाम दिया। एक अभियान चलाया जिसमें ना केवल लोगों को अपने खेतों में मेड़ बनाने के लिए प्रेरित किया बल्कि उनकी पूरी मदद भी की। खेत पर मेड़ के अभियान को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने मेड़ पर पेड़ को भी शामिल कर लिया। धीरे-धीरे जखनी की तस्वीर बदलने लगी। गांव के हर खेत मेड़ और पेड़ से जुड़ गए। इसके साथ ही उन्होंने एक और अभियान चलाया। गांव की तमाम नालियों को जोड़ कर उसका पानी तालाब में ले गए। इससे पानी की बर्बादी रूकने लगी।

खेत में मेड़, मेड़ पर पेड़ से जलग्राम बना जखनी

जखनी के खेत अब बारिश के बाद पानी से लबालब रहने लगे। इसका जबरदस्त असर हुआ। जिन खेतों में बमुश्किल साल में एक पैदावार हो रही थी अब वहां से तीन-तीन फसल मिलने लगीं। सब्ज़ियों की भी पैदावार बढ़ गई। मेड़ पर बेल, सहजन, सागौन, नींबू और अमरूद जैसे पेड़ लगाए गए जो किसानों की आय बढ़ाने में मददगार साबित होने लगे। मेड़ की वजह से ना केवल खेत में पानी रुकने लगा बल्कि पानी के साथ उपजाऊ मिट्टी का भी बहना रूक गया।

कुएं-तालाब हुए लबालब

उमा शंकर बताते हैं कि गांव के तालाबों को ठीक करने के दौरान किसी तरह के सीमेंट या कंक्रीट का इस्तेमाल नहीं किया गया। वो कहते हैं कि हमें चेक डेम बनाने की ज़रूरत नहीं है। खेतों में पानी रूकने का असर ऐसा हुआ कि ग्राउंड वाटर लेवल भी बढ़ने लगा। तालाब गर्मियों में भी लबालब रहने लगे। हैंडपंप हल्के हाथ पर भी पानी देने लगे और कुएं में तो केवल 5 फीट की गहराई पर पानी पहुंच गया। हालात बदले तो गांव में खुशहाली बढ़ने लगी। खेत लहलहाने लगे। भरे तालाबों में मछलियां पाली जाने लगी। हरियाली बढ़ी तो इलाक़े का तापमान भी कम हो गया।

जखनी की राह पर चले आस-पास के गांव

जखनी अब रोल मॉडल बन चुका था। जो लोग जखनी में चल रहे कामों पर सवाल उठाते थे, मज़ाक उड़ाते थे अब वो भी जखनी के मॉडल को अपनाने लगे। वहां भी नतीजे सुखद रहे। कुछ सालों में घुरौंडा, जमरेही, सहेवा, बरसड़ा खुर्द और बरसड़ा बुज़ुर्ग गांव में भी पानी टिकने लगा।

देश और दुनिया में बनी पहचान

जिस बुंदेलखंड के सूखे को लेकर देश-दुनिया में हाहाकार मचता था उसी बुंदेलखंड के जखनी की चर्चा अब लोगों तक पहुंचने लगी थी। अब तक जखनी के इस मेड़बंदी यज्ञ को किसी तरह की सरकारी सहायता नहीं मिली थी। पूरा खर्च और पूरी मेहनत गांववालों की ही थी, वहां सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों की आमद-रफ़्त शुरू हो गई। प्रधानमंत्री ने भी गांव में जल संरक्षण के लिए किये गए कामों की ख़ूब तारीफ़ हुई और देश के 1000 से भी ज़्यादा गांवों में जखनी मॉडल अपना कर वहां के सूखा संकट को ख़त्म करने का फ़ैसला किया गया।

बांदा से फ़िर आई बासमती की ख़ुशबू

गांवों से पानी का संकट ख़त्म करने के बाद उमा शंकर बांदा की बासमती वाली पहचान लौटाने के अभियान में जुट गए। एक समय बांदा और आसपास के चावल बहुत प्रसिद्ध थे। कभी रोज़ मालगाड़ी में भरकर बांदा के चावल देश भर में भेजे जाते थे लेकिन पानी की कमी से बांदा की ये पहचान ख़त्म हो गई। लेकिन आज बासमती की ख़ुशबू एक बार फ़िर यहां की हवा में तैर रही है। सिर्फ़ जखनी से 20 से 25 हज़ार क्विंटल बासमती धान की पैदावार हो रही है।

घर लौटने लगे परिंदे

उमा शंकर का ये जल अभियान रंग ला चुका था। गांव में पानी था। खेत-खलिहान हरे-भरे थे। अनाज हो रहा था। इस वजह से गांव से पलायन की रफ़्तार कम हो गई। यहां तक की गांव छोड़ कर जा चुके कई परिवार लौट भी आए।

जारी है उमा शंकर का महायज्ञ

जखनी से शुरू हुई जल क्रांति अब पूरे देश में अलख जगा रही है। ये सीख दे रही है कि बड़े बदलाव के लिए छोटी शुरुआत हम ख़ुद भी कर सकते हैं। जलग्राम जखनी देश को राह दिखा रहा है लेकिन उमा शंकर रूके नहीं हैं। वो जल संरक्षण और पर्यावरण के लिए लगातार काम कर रहे हैं।

उमा शंकर और उनके साथियों की इस अनवरत साधना को इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट सलाम करता है।