कहते हैं मजबूरी इंसान से मुश्किल से मुश्किल काम करवा लेती है लेकिन मजबूरी में शुरू किये गए संघर्ष को अगर इंसान मिशन बना ले तो वो संघर्ष मिसाल बन जाता है।
ऐसी ही दमदार कहानी की नायिका हैं मीराबाई मीणा
मीराबाई बिल्कुल अपने नाम की ही तरह हैं, मीरा की तरह। जो ठान लिया वो ठान लिया, जो तय कर लिया उसे लाख मुश्किलों के बाद भी अंजाम तक पहुंचाया। मीराबाई की कहानी उदयपुर के उन इलाक़ों से जुड़ी है जहां साल के बारहों महीने पानी की किल्लत रहती है। सूखे उजाड़ क्षेत्रों में पानी मुहैया कराना सरकार के लिए भी बड़ी चुनौती का काम रहता है।
ऐसे ही इलाक़े में हैंडपंप मिस्त्री का काम करती हैं हमारी कहानी की नायिका मीराबाई मीणा।
झंझावातों में फंसी मीराबाई की ज़िंदगी
एक वक़्त मीराबाई की ज़िंदगी भी सामान्य सी थी। घर था, पति था जो काम-धंधा करता था। घर में आफियत तो नहीं थी लेकिन गुज़र-बसर चल जाता था। लेकिन समय ने करवट क्या बदली मीराबाई की ज़िंदगी में तूफ़ान आ गया। पति के अचानक गुजर जाने से मीराबाई की गृहस्थी चौपट हो गई। धीरे-धीरे नौबत दो वक़्त की रोटी के संकट की भी आ गई और यही वो वक़्त था जब मीराबाई ने घर की चौखट से बाहर निकल कर काम करने का निश्चय किया। लेकिन इतने पर मीराबाई का संकट ख़त्म नहीं हुआ बल्कि नई समस्या सामने आ गई। सवाल ये उठा कि मीराबाई कौन सा काम करे ? छोटे से गांव में काम-धंधे का भी बहुत ज़रिया नहीं था। ऊपर से मीराबाई निरक्षर थीं तो गांव के बाहर जाकर मज़दूरी जैसे ही काम मिलने थे।
हैंडपंप मिस्त्री के काम की चुनौती
इसी बीच गांव के ही एक परिचित ने मीराबाई को हैंडपंप मिस्त्री के काम के बारे में बताया। दरअसल राजस्थान सरकार ग्रामीण इलाक़ों में पानी की व्यवस्था सुचारू ढंग से चलाने के लिए हैंडपंप मिस्त्री बहाल करती है। ये मिस्त्री गांवों के ख़राब हैंडपंप ठीक करते हैं ताकि लोगों को पानी मिलता रहे। इसके लिए बाक़ायदा ट्रेनिंग भी दी जाती है। तो मीराबाई ने हैंडपंप मिस्त्री का काम सीखने के लिए ट्रेनिंग शुरू कर दी। मीराबाई के लिए ना तो काम आसान था और ना ही कलपुर्ज़ों के नाम याद रखना। काम सीखने में तो मीराबाई को ज़्यादा वक़्त नहीं लगा, लेकिन हैंडपंप के पार्ट्स के नाम रटने में उनकी रातों की नींद उड़ गई। इधर मीराबाई मिस्त्री का काम सीख रही थीं तो दूसरी तरफ गांव में उनको लेकर बातें होने लगीं। गांव के ज़्यादातर लोग एक महिला के हैंडपंप मिस्त्री होने से इत्तेफ़ाक नहीं रख रहे थे। लोगों को लग रहा था कि ये पुरुषों का काम भला एक औरत कैसे कर लेगी लेकिन मीराबाई तो मीराबाई ही ठहरी। हार नहीं मानी और जल्दी ही ट्रेनिंग पूरी कर बन गईं हैंडपंप मिस्त्री।
शुरुआत में इसके लिए काफी कम पैसे मिलते थे। ट्रेनिंग के दौरान 150 रुपये महीना और बाद में 300 रुपये महीना दिया जाता था यानी मुश्किल और मेहनत भरे काम के लिए दाम बेहद कम, लेकिन मीराबाई इसी काम में रम चुकी थीं। पथरीले रास्तों पर भारी टूलकिट सिर पर उठाकर मीरबाई लगातार पैदल चल कर गांवों के हैंडपंप को चेक करने और उसे ठीक करने में जुटी रहीं।
मिशन पर हैं मीराबाई
वो लगी रहीं और अपनी मेहनत और ईमानदारी से किये काम के दम पर गांववालों से लेकर अधिकारियों तक को अपना मुरीद बनाती रहीं। जो गांववाले शुरुआत में मीराबाई की क्षमता पर शक किया करते थे बाद में वही उनकी तारीफ़ों के पुल बांधते नज़र आने लगे। अच्छे काम का नतीज़ा भी अच्छा हुआ। मीराबाई की नौकरी पक्की कर दी गई लेकिन इससे उनके काम के प्रति लगन और निष्ठा में कोई बदलाव नहीं आया। पिछले 20 सालों से भी ज़्यादा वक़्त से मीराबाई मीणा उदयपुर के पाडुणा और आसपास के गांवों के हैंडपंप ठीक कर रही हैं ताकि लोगों को पीने का पानी आसानी से मिल सके।
मीराबाई के काम के प्रति अपने समर्पण, लगन और जज़्बे को इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट का सलाम।
Add Comment