आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट एक ऐसे क्रांतिवीर की कहानी लेकर आया है जो गांव मोहल्लों में शिक्षा की अलख जगाने में जुटा है। जब देश ही नहीं दुनिया के पांव थम चुके थे तब हमारे नायक ने शिक्षा का पहिया थमने नहीं दिया। ये कहानी है मध्यप्रदेश के सिंगरौली के शिक्षक शरद पाण्डेय की।
कोरोना के भयावह दौर में बने उम्मीद
कोरोना के उस डराने वाले समय में एक शख्स अपनी मोटरसाइकिल पर एक व्हाइट बोर्ड और एक लाउडस्पीकर लेकर सिंगरौली के गांवों में घूम रहा था। कभी किसी गांव में-कभी किसी मोहल्ले में कुछ बच्चों को जमा कर खुले आसमान के नीचे ही क्लास लगा रहा था। ये थे हमारे शरद पाण्डेय।
हम में से कोई भी उन काले दिनों को नहीं भूला होगा जब कोरोना की वजह से देश में लॉकडाउन लगा था। उस समय स्कूल-कॉलेज सब बंद हो गए थे। काम-धंधे सब ठप पड़ गए थे। लॉकडाउन का समय बढ़ता जा रहा था लेकिन स्थिति सामान्य नहीं हो रही थी। फिर वो समय आया जब स्कूल-कॉलेजों में ऑनलाइन क्लास शुरू हुईं लेकिन सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए ये संभव नहीं था।
ये बात सिंगरौली के सरकारी स्कूल में शिक्षक शरद पाण्डेय को चुभने लगी। वो रात-दिन बच्चों की पढ़ाई के बारे में सोचने लगे और फिर एक ऐसा तरीका निकाला जो किसी क्रांति से कम नहीं था। पहले तो वो Whats App ग्रुप बनाकर बच्चों को पढ़ाई की सामग्रियां भेजने लगे लेकिन ये बहुत कारगर साबित नहीं हुआ।
इसके बाद उन्होंने बच्चों के पास जाकर पढ़ाने का फ़ैसला किया। शरद जी ने अपने स्कूली बच्चों के घरवालों से संपर्क साधा और फिर पहुंच गए उनके मोहल्ले। 4-5 बच्चे जुटे तो उन्हें पढ़ाना शुरू कर दिया।
हर समस्या का समाधान हैं शरद
गांव-मोहल्लों में, खुले में, सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करते हुए बच्चों को पढ़ाना आसान नहीं था। विज्ञान के शिक्षक होने के नाते कई बार उन्हें बच्चों को लिखकर समझाने की ज़रूरत महसूस होने लगी। फ़िर क्या था। शरद जी ने बच्चों को पढ़ाने के लिए एक व्हाइट बोर्ड ख़रीद लिया। उसे एक लोहे के रॉड से जोड़ लिया। बोर्ड को बाइक में फंसाने के लिए एक स्टैंड भी लगा लिया। शरद जी के इस इनोवेशन ने बच्चों की पढ़ाई का तरीका ही बदल डाला। अब वो बोर्ड पर लिख कर आसानी से बच्चों को पढ़ाने लगे।
इसी बीच एक समस्या और आ गई। शरद जी की आवाज़ हर बच्चे तक ठीक से नहीं पहुंचती थी। इसलिए उन्हें समझने-समझाने में दिक्कत आने लगी। लेकिन कहा ना कि शरद जी समस्याओं का हल चुटकियों में निकाल लेते थे। उन्होंने एक लाउडस्पीकर ख़रीद लिया। इससे उनकी आवाज़ आसानी से बच्चों तक पहुंचने लगी।
उन्होंने बच्चों को अच्छी तरह समझाने के लिए मोबाइल पर पाठ के स्लाइड शो तैयार किये। बच्चों के लिए मोबाइल पर प्रश्नों की शीट तैयार की। शरद पाण्डेय की इन कोशिशों ने रंग दिखाया और क्लास बंद होने की वजह से ठप पड़ी बच्चों की पढ़ाई काफ़ी हद तक पटरी पर लौटने लगी।
मोहल्ला लाइब्रेरी की शुरुआत
शरद पाण्डेय शुरुआत से ही नवाचार में जुटे रहते थे। स्कूल में पढ़ाने के नए-नए तरीक़े इजाद करते थे। इसी क्रम में उन्होंने अपने पूर्व छात्रों के साथ मिलकर मोहल्ला लाइब्रेरी की अनूठी शुरुआत की। इसमें किसी पूर्व छात्र के घर-दुकान या किसी जगह पर कहानियों की क़िताबों की लाइब्रेरी खोली गई। हर मोहल्ले में इस तरह की लाइब्रेरी खोल कर बच्चों को उससे जोड़ा गया। अलग-अलग तरह की एक्टिविटी कराई गई जिससे बच्चे इस पुस्तकालय से बंधते चले गए। मोहल्ला लाइब्रेरी से ख़ास तौर पर अनुसूचित जाति-जनजाति के बच्चों को शामिल किया गया ताकि वो पढ़ाई से जुड़ सकें।
स्थानीय बोलियों में कहानियों का पाठ कराया, कभी हंड्रेड डेज़ रीडिंग कैंपेन में बच्चों से भागीदारी करवाई यानी शरद हर तरह से बच्चों को शिक्षा से जोड़ने में जुटे रहे। अपने पूर्व छात्रों के सहयोग से शरद पाण्डेय ग़रीब और कचरा बिनने वाले बच्चों को भी शिक्षा देने का अभियान चला रहे हैं।
ज़िंदगी ने शरद को बनाया शिक्षक
शरद का शिक्षक बनना भी जैसे ज़िंदगी ने तय कर रखा था। वो पढ़ाई कर नौकरी करना चाहते थे लेकिन घर में पिता की तबीयत बिगड़ी और वो वापस चले आए। पिता की सेवा उनके लिए ज़रूरी थी। इसी दौरान उन्होंने शिक्षक की नौकरी भी शुरू कर दी और फिर इसमें वो ऐसे रमे कि बस रमते चले गए। शिक्षा और विद्यार्थियों के प्रति उनके समर्पण, पढ़ाने और नवाचार की शैली का ही कमाल है कि तबादला होने पर स्कूल के शिक्षकों से लेकर विद्यार्थी और उनके घरवाले तक डीएम के पास पहुंच गए और ट्रांसफर रोकने की मांग कर डाली। ये तभी संभव है जब कोई शिक्षक शिक्षा को पेशा नहीं अपना धर्म मान रहा हो।
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