क्या हम कल्पना कर सकते हैं ख़ुद को बिना हाथों के? सोच कर के ही सिहरन होती है कि बिना दोनों हाथ के ज़िंदगी कितनी दुश्वार होगी। लेकिन दुनिया में सैकड़ों ऐसे भी लोग हैं जो या तो किसी हादसे की वजह से या फ़िर किसी शारीरिक परेशानी की वजह से दोनों हाथ गंवा बैठे हैं लेकिन ख़ास बात ये है कि उन्होंने भले ही उन्होंने अपने हाथ गंवा दिये लेकिन अपने हौसले नहीं गंवाए, हिम्मत और हौसला नहीं गंवाया। बिना हाथों के अपनी ज़िंदगी के रास्ते ख़ुद गढ़े, ख़ुद बनाए। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट एक ऐसी ही शख़्सियत की कहानी लेकर आया है जिसने ज़िंदगी की इस बेहद बड़ी, मुश्किल और दर्दनाक चुनौती को अपनी हिम्मत और जज़्बे के दम पर पलट दिया। इस शख़्सियत का नाम है डॉ सुनीता मल्हान।
सुनीता का जीवन संघर्ष
सुनीता मल्हान हरियाणा के रोहतक में रहती हैं। वो यहां महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय के गर्ल्स हॉस्टल की वार्डन हैं। एमफ़िल और पीएचडी के बाद लेक्चररशिप के साथ-साथ वो एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की एथलीट भी हैं। ये मक़ाम उन्होंने तब हासिल किया है जब उनके दोनों हाथ नहीं हैं।
सुनीता का जन्म झज्जर के सुबाना गांव में साल 1966 में हुआ था। पढ़ाई में शुरू से ही अच्छी रहीं सुनीता ने स्कूल के बाद रूकी नहीं। उन्होंने बारहवीं और ग्रेजुएशन के बाद मास्टर्स की पढ़ाई शुरू कर दी लेकिन किसी को नहीं पता था कि उनकी ज़िंदगी ने उनके लिए कुछ और तय किया हुआ है।
हादसे में गंवाए दोनों हाथ
सुनीता की शादी हो चुकी थी। सबकुछ अच्छा चल रहा था। उन्होंने नौकरी के लिए भी कोशिशें शुरू कर दी थीं। इसके साथ ही एमए की पढ़ाई भी जारी थी। लेकिन फ़िर आया वो दिन जिसके बाद ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई। 8 मई 1987 को रोज़ की तरह सुनीता साइकिल से जा रही थीं। रेलवे क्रॉसिंग पर उनकी चुन्नी साइकिल के पहियों में फंस गई और वो पटरी पर ही गिर गईं। जब तक वो संभलती तब तक ट्रेन आ गई।
उन्होंने जब अस्पताल में अपनी आंखें खोली तो अजीब सा महसूस किया। अपने शरीर के दोनों तरफ़ उन्हें खालीपन महसूस हुआ। कुछ ही देर में उन्हें ये अहसास हो गया कि उनके दोनों हाथ कट चुके हैं। ये केवल सुनीता के लिये ही नहीं बल्कि पूरे परिवार के लिए बड़ा झटका था लेकिन ज़िंदगी की परीक्षा अभी ख़त्म नहीं हुई थी। सुनीता अस्पताल में ही थी कि ससुरालवालों ने साफ़ कर दिया कि अब सुनीता के साथ रिश्ता नहीं रखा जा सकता। जब सुनीता को अपने पति के साथ उनके सहारे की ज़रूरत थी तब, उस मुश्किल हालात में ही उन्होंने तलाक़ का फ़ैसला सुना दिया। भले ही पति और ससुरालवालों ने मुंह मोड़ लिया लेकिन सुनीता के घरवाले डटे रहे। दो महीने के इलाज के बाद सुनीता घर लौटीं।
एक नए संघर्ष की शुरुआत
अस्पताल की एक नर्स और अपने घरवालों के साथ की बदलौत सुनीता ने ठान लिया कि वो एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करेंगी। उन्होंने पैर से लिखना शुरू किया। शुरुआत में तो बहुत मुश्किल आई लेकिन एक-एक अक्षर करते-करते वो लिखने लग गईं। उन्होंने तय कर लिया था कि जब वो अपने पैरों से लिखने लगेंगी तो सबसे पहले अपने तलाक के पेपर पर साइन करेंगी।
सुनीता की मेहनत रंग लाने लगी। उन्होंने एमए की परीक्षा दी। इसके बाद एमफ़िल किया। इसके बाद उन्हें यूनिवर्सिटी कॉलेज में लेक्चरशिप का मौक़ा मिल गया और कुछ ही दिनों बाद उनकी नौकरी भी लग गई। सुनीता के लिए सिर्फ़ लिखना ही संघर्ष नहीं था। रोज़मर्रा के कामकाज़ से लेकर बाहर नौकरी करने तक में उन्हें क़दम-क़दम पर दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा लेकिन हर मुश्किल को उन्होंने चुनौती के रूप में लेते हुए उसपर विजय हासिल की।
ज़िंदगी जीने का जज़्बा
अच्छी पढ़ाई और नौकरी के बाद भी सुनीता रूकी नहीं। उन्हें हमेशा कुछ नया, कुछ अलग करने की अभिलाषा थी। वो अक्सर बच्चों को खेलते-भागते देख कर सोचा करती थीं कि वो भी खेल में हिस्सा ले सकती हैं। जल्द ही उन्होंने इसकी शुरुआत अपने कॉलेज में हुए एक आयोजन में कर दिया। इसमें उन्होंने ईनाम भी जीते। इसके बाद उनकी दिलचस्पी और बढ़ी। उन्हें पैरालंपिक खेलों की जानकारी हुई। इसके लिए उन्होंने तैराकी सीख ली। इसके साथ ही वो दौड़ में भी हिस्सा लेती थीं। साल 2005 में उन्होंने तमिलनाडु में हुए पैरा गेम्स में गोल्ड और सिल्वर मैडल भी जीत लिया। इस जीत के बाद उन्होंने विदेश में भी अपना परचम लहराया।
श्रीराम पर लिखी क़िताब
डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाली सुनीता मल्हान ने साल 1991 में श्री राम पर शोध भी किया है। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम पर अपने पैरों से एक क़िताब भी लिखी है। इस क़िताब का नाम श्रीराम-एक विवेचन है। उन्हें दो बार राष्ट्रपति के हाथों सम्मान भी हासिल हो चुका है। इसके साथ ही उन्हें साल 2011 में हरियाणा का सर्वोच्च खेल सम्मान भीम अवॉर्ड भी मिला है। डॉ सुनीता मल्हान एक मिसाल हैं। उनका जज़्बा, उनके हौसले हर इंसान को लड़ने की शक्ति देते हैं।
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