भारत को कभी सपेरों का देश कह कर मज़ाक उड़ाया जाता था, लेकिन आज पूरी दुनिया भारत के पारंपरिक ज्ञान और तरीकों की ना केवल मुरीद है बल्कि अक्सर उनकी मदद से अपनी समस्याएं सुलझा रही है। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट जिन शख़्सियतों की कहानी लेकर आया है, वो भी कुछ इन्हीं वजहों से दुनिया भर में मशहूर हैं। आज की कहानी है गोपाल और सदइयां नाम के दो दोस्तों की।
गोपाल और सदइयां को पद्म श्री
दोनों बचपन से दोस्त हैं। वदिवेल गोपाल और मासी सदाइयां की दोस्ती उनके काम से भी जुड़ी है। दोनों दोस्त साथ मिलकर सांप पकड़ते हैं। दोनों की उम्र अब पचास के पार हो चुकी है लेकिन दोस्ती के साथ-साथ जज़्बा बरकरार है। दोस्ती के इसी जज़्बे का कमाल है कि दोनों दोस्तों को एक साथ देश के सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक पद्म श्री से सम्मानित किया जा रहा है।
इरुला जनजाति के गोपाल और सदइयां
गोपाल और सदइयां तमिलनाडु की इरुला जनजाति से जुड़े हैं। तमिलनाडु और केरल की सीमा पर बसने वाली ये जनजाति का सांपों से गहरा नाता है। उनकी आस्था और संस्कृति में रचे-बसे हैं सांप। पूजा-पाठ और सांस्कृतिक विधानों में भी सांपों की भूमिका होती है। इसलिए ये जनजाति सांप पकड़ने में भी माहिर होती है। अपने बाप-दादाओं के देख-देख कर बच्चे ख़ुद-ब-ख़ुद सांप पकड़ना सीख लेते हैं। गोपाल और सदइयां भी इसी तरह सांप पकड़ना सीख गये। धीरे-धीरे ये ना सिर्फ़ सांपों को पकड़ने में बल्कि सांपों के एक्सपर्ट भी बन गये।
अमेरिका से आया था बुलावा
अमेरिका के फ्लोरिडा में एक नेशनल पार्क है एवरग्लेड। करीब 5 साल पहले इस पार्क में बर्मीज़ अजगरों ने ख़ौफ़ मचा दिया था। इन अजगरों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही थी और ये संरक्षित प्रजाति के जीवों को खाये जा रहे थे। पहले तो पार्क प्रशासन ने अपने स्तर पर इन अजगरों को पकड़ने की कोशिश की लेकिन वो इसमें कामयाब नहीं हो सके। कई शिकारियों को बुलाया गया जो अपने साथ ट्रेन्ड शिकारी कुत्ते भी लाये थे। लेकिन वो भी नाकाम साबित हुए। अजगरों का आतंक बढ़ता जा रहा था। तब पार्क प्रशासन ने चेन्नई के पास वडानेम्मेली की इरुला स्नेक कैचर्स इंडस्ट्रियल को-ऑपरेटिव सोसाइटी से संपर्क साधा। सोसाइटी ने गोपाल और सदइयां को फ्लोरिडा भेजा। दोनों अपने काम में इतने उस्ताद थे कि दो महीने के अंदर 30 से ज़्यादा अजगरों को पकड़ कर पार्क प्रशासन को सौंप दिया। सांपों की पहचान, उनका पीछा करने और उन्हें पकड़ने की तकनीक देखकर पार्क प्रशासन के अधिकारी और बड़े-बड़े स्नैक कैचर्स भी अचरज में पड़ गये।
इतना ही नहीं फ्लोरिडा में ही आयोजित पायथन चैलेंज में भी दो दोस्तों ने अपना कमाल दिखाया था। इस चैलेंज में दुनिया भर के 800 से अधिक सांप पकड़ने वालों ने हिस्सा लिया था। पायथन चैलेंज में गोपाल और सदइयां भी शामिल थे। दोनों ने अपनी टीम के साथ मिलकर सबसे ज़्यादा अजगर पकड़ कर लोगों को हैरत में डाल दिया था। दोनों अमेरिका के अलावा थाइलैंड भी जा चुके हैं। कई देशों में तो गोपाल और सदइयां सांप पकड़ने की ट्रेनिंग भी दे चुके हैं। कई मशहूर स्नैक कैचर भारत आकर उनके साथ रह चुके हैं और उनके काम करने के तरीकों से अनुभव हासिल किया है।
इंसानी जीवन बचाने में इरुला का योगदान
पहले इरुला जनजाति सांप पकड़ने का काम किया करती थी। जब सांपों को पकड़ने पर रोक लग गई तो इनका जीवन यापन मुश्किल हो गया। तब इन्होंने सांप का ज़हर निकालने का काम शुरू किया। ये बिल्कुल देसी अंदाज से सांपों को पकड़ कर उनका ज़हर निकालते हैं। देश में बनने वाली एंटी वेनम दवाओं में इनका इस्तेमाल होता है। ज़्यादातर एंटी वेनम दवाएं इरुला जनजाति के लोगों के निकाले ज़हर से ही तैयार हो रही है। साल 1978 में चेन्नई के पास वडानेम्मेली की इरुला स्नेक कैचर्स इंडस्ट्रियल को-ऑपरेटिव सोसाइटी की स्थापना की गई थी। गोपाल और सदइयां जैसे सैकड़ों इरुला जनजाति के लोग इस सोसायटी से जुड़े हैं। ये लोग सांपों को पकड़ कर उनसे सुरक्षित तरीके से ज़हर निकाल कर उन्हें जंगल में छोड़ देते हैं। सांपों पर ख़ास तरह की मार्किंग भी की जाती है जिससे जंगल में छोड़ा गया सांप फ़िर से ना पकड़ा जाए। कई बार सांपों को पकड़ने के काम में इन्हें सांपों ने डसा भी है, लेकिन अपने पारंपरिक ज्ञान की बदौलत से उस ज़हर को काटने की क्षमता रखते हैं। ये जनजाति सांपों को अपने बच्चों की तरह मानती है, उसका आदर करती है, उसका संरक्षण करती है।
इसी पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे ज्ञान और तकनीक को सम्मानित करने के लिए दोनों दोस्तों को पद्मश्री देने का फ़ैसला किया गया है।
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